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मदनजुद्ध काव्य
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अर्थ—सभी पट्टनोंमें पुण्यपुर पट्टन प्रकट है । वहाँ सत्य नामका राजा स्थिर है । उसने विवेकको अपने तृप्ति रूपी गढ़में स्थिर रूप (अच्छी तरह) से स्थापित कर लिया है । उसने (राजा सत्य) अपनी पुत्री का विवाह भी उसके साथ कर दिया है तथा सम्पूर्ण राज्य, और देश भी उसे समर्पित कर दिया है । वह विवेक दया-धर्म का पालन करता हुआ पर-उपकारमें लगा रहता है । उसके राज्यमें स्वप्नमें भी अन्यायी चोर और जार पुरुष दिखलाई नहीं पड़ते ।
व्याख्या-यह आस्मा ही एक प्रकट नगर है । जब आत्मामें मोह राजा निवास करता है सब आत्मा ही अधर्मपुरी बन जाती है । वहीं चोर, व्यभिचारी, अन्यायी जन रहते हैं । किन्तु आत्मा में जब सत्य राजा रहता है सब वह आत्मा धर्मपुरी कहलाती है । अत: यह आत्मा दोनों रूपोंमें प्रसिद्ध हैं । उस पुण्यपुर नगरके चारों ओर तृप्ति (सन्तोष) नामका गढ़ है । जहाँ सत्य राजा स्थिर रहता है । वहीं उसने विवेकको भी स्थापित कर लिया है । उसे क्रोध, मान, माया और लोभ भी नहीं हटा सकते । राजा सत्य ने अपनी कन्या (अनुभूति) का विवाह विवेकके साथ कर दिया है साथ ही अपना राज्य भी अर्पित कर दिया है । समस्त आत्मप्रदेश में उसीका अधिकार है। उसका राज्य निष्कंटक है । उसकी विशेषताका वर्णन करना सम्भव नहीं है । दोहा :
पवण छत्तीसङ सुखि बसइ करइ न को परतांति । काँचे कंचन गलियमहि पड़े रहहिं दिन-राति ।। २५।।
अर्थ-वहाँ छत्तीसों जातियाँ सुखसे निवास करती हैं ।
व्याख्या-पवणका अर्थ समर्थ, चतुर अथवा वायु होता है । आत्मा की अपेक्षा ३६ वायु लेना । सम्यग्दर्शन के प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य, भक्ति, निर्वेग, नि:शंकितादि आठ अंग तथा सम्यग्ज्ञान के आठ अंग, सम्यग्चारित्रके नि:शल्य आदि एवं पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति अथवा रत्नत्रय उनके २९ अंग तथा प्रशम, संवेग आदि ४ मिलाकर ३६ समझ लेना चाहिए । लोकमें ३६ जातिके मनुष्य नगरों में रहते हैं । वे सह परस्पर में अपनी-अपनी परिणति करते हुए मेल से रहते हैं । उनके परिणामों काँच-कंचन दोनों समान हैं । वहीं समता भाव का रूप पथ है । उसी में वे पड़े रहते है । अर्थात् कोई भी आत्मा से दूर नहीं हटते ।