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भदनमुळे काब्ध
ऋतुराज वसन्त का आगमन गीता छन्द : बज्जिन निसाणु वसंतु आय उछल्लि कुंद सुखिल्लियं । सुभ गंध मलया पक्षण झुल्लिय अंखि कोइल बुल्लियं । रुणझुणिय केय कलिय माहुयर सुतरु पत्तिहि छाइयं गावंति गीय वति बीपणा तरुणि पाइक आइयं ।। ३७।।
अर्थ--जब निशान (बाद्य) बजने लगे, तो उसे सुनकर बसंत (ऋतुराज) उछलकर आ गया । उसके आगमनसे कुंद पुष्प प्रफुल्लित हो गए । शुभ गंध युक्त मलयानिल (पवन) चलने लगी तथा आम्र-वृक्षों पर कोकिल ककने लगी । केतकी पुष्पकी कलियों पर भ्रमर रुण-झण ध्वनिसे गुंजन करने लगे | आम्न-वृक्ष पत्तियोंसे ढंक गए । तरुणी महिलाओं पर पाइक (बसन्त का उन्माद) छा गया । वे गीत गाने लगीं और वीणा बजाने लगी ।
व्याख्या–युद्ध की वाद्य-ध्वनिको सुनकर राजा मोहका मित्र वसंतराजा भी उसका साथ देनेके लिए उछलकर आ गया । साहित्यमें वसंत ऋतको सभी ऋतुओंकी राजा माना गया है क्योंकि उस ऋतु में सभी नरनारी उल्लास और उन्माद से भर जाते हैं ।
वह ऋतुओंमें सर्वप्रथम शिशिरऋतुमें शीत अधिक पड़नेसे सभी नरनारी गर्भगृहोंमें छिप जाते हैं । पुष्प तुषारसे गलने लगते है, वृक्षोंके पत्ते झड़ने लगते हैं । अत: उन्माद कार्य नहीं हो पाता । आगे ग्रीष्म ऋतुमें गमीं अधिक पड़ने से भी उल्लास नहीं आता है । वर्षा ऋतु में भी वर्षा अधिक होने से सब अपने-अपने घरों में आश्रय ले लेते हैं । उस समय कोई उत्सव नहीं होता केवल धार्मिक कार्य होते हैं । वर्षा ऋतु में विदेश गमनादि जो कार्य बन्द हो गए थे वे शरद ऋत में होने लगते हैं अर्थात व्यापारको चिन्ता होने लगती है । हेमन्तमे गीत का प्रवेश हो जाने के कारण सब अपना-अपना स्थान चुनने लगते हैं । अतः एक वसन्त ऋतु ही ऐसी है, जिसमें नर-नारी उन्माद को प्राप्त हो जाते हैं और स्वच्छन्द होकर घर से निकल पड़ते हैं ।
इस अवसर पर राजा भी जल क्रीड़ा और वनक्रीड़ा की योजनाएँ करते हैं । शीतल, मन्द, सुगन्धित मलयानिल चलने लगती है । उस वायु के प्रवाह से स्वयमेव ही राग की वृद्धि होने लगती है ! अमरमंजरी खाने से कोकिलों के कण्ठ खुल जाते हैं और वे मधुर स्वरसे