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मदनजुद्ध काव्य
विवेक मेरे सम्मुख आकर युद्ध न कर सका और (कायर की तरह) पलायन (भाग जाना) कर गया ।
व्याख्या-कायर पुरुष उन्हें कहते हैं, जो शत्रुओं के प्रताप पौरुष को सुनकर डर जाते हैं । अपने पुरुषत्व को भूल जाते हैं । यहाँ श्रद्धान रूप भावोंके कठोर रूप परिणाम को ही विवेक कहा गया है । वह मोह का विजेता है । इसलिए विवेकन संयन रूपी किले का आश्रय ले लिया
और अपने इष्ट श्री ऋषभेश भगवान् का स्मरण किया, जिससे कि विजय प्राप्त हो । मदन ने उसके इस कृत्य का उल्टा अर्थ लगाया और सर्वत्र प्रचार किया कि विवेक कायर है । वह मेरी वीरता के सम्मुख टिक नहीं सका इसीलिए पीठ दिखाकर भाग गया है । वस्तु छन्द :
जाणि सच्चु पिय गयउ विवेकु धम्मप्युरि गढ़ि घडिउ सरवणि सनमानु दीयउ । परतापिहि गरजियउ रुदद जेम उद्योतु कीयड । जीवंतड बैरी गयउ देखु जु कटिहइ सोजु । नहि तुं मदन न मोह पडु दुहू गवायद खोजु ।।६४।।
अर्थ- हे प्रिय (रति), तू सत्य जान कि विवेक भाग गया और धर्मपुरी के गढ़ (दुर्ग) पर चढ़ गया । सर्वज्ञ (श्री ऋषभदेव) ने उसे सम्मान (आश्रय) दिया | उनके प्रताप से वह वहाँ गरजने लगा । उसने रुद्र (भयंकर) रूप से (अपनी शक्ति का) उद्योत किया । मुझे लौटता हुआ देखकर वह बोला--कि मुझ विवेकको कमर कसे (लड़ने को तैयार) देखकर शत् (मदन) जिन्दा ही वापिस चला गया, न तू मदन ही रहेगा और न वीर मोह हो । दोनों को खोजकर उनके प्राण गँवा दूंगा ।
व्याख्या-इस गाथा में कवि ने उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकारों के द्वारा रतिको विश्वास दिलाने का प्रयास किया है । वह किसी भी प्रकार मदन की बातों पर विश्वास नहीं कर रही थी । मदन ने विश्वास दिलाते हुए कहा कि विवेक रत्नत्रय को धारण कर ऋषभेश की शरण में चला गया । ऋषभेश ने अभी उसे शरणागत जानकर अपनी छत्र-छाया में आश्रय दे दिया है । वह प्रभु के सम्मुख स्वयमेव ही संयमी बन गया । वह संयम नामक गढ़ बड़ा ही अभेद्य है, जो पाप रूप मदन गोलों से भी अस्पृश्य है । उस समय का लक्षण निम्न प्रकार है
"बदसमिदि कसायरणं दंडाणतहिदियाण पंचण्हं ।