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मदनजुद्ध काव्य
दार्शनिक दृष्टि से देखें तो यह कोई स्त्री पुरुष नहीं है । संसारी आत्मा के विकारी भाव हैं । रति शब्द से अभिप्राय राग की परिणति से है और मदन का अर्थ पुरुषवेद अर्थात् रागपरिणति के अधिपति रूप से है | जिणि संकरु इंदु हरि बंधु । वासिकु पायाल घर चंदु सुरु गह गयणि सारयण । विद्याधर जक्ख सुर गंधव्य सह देव गायण । जोगी जंगम कापडिय संन्यासी रिसि छंदि । ले ले तपु वन महि दुड़े ते मई घारने बंदि ।।६।।
अर्थ–रति के प्रश्न को सुनकर मदन इस प्रकार उत्तर देता है "मैंने शंकर, इन्द्र, हरि (विष्णु) और ब्रह्मा सबको जीत लिया (वश में कर लिया) है । वासुकि नागके पाताल देशको तथा चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्रके धाम आकाशको भी जीत लिया । मैंने विद्याधर, यक्ष, सर, गन्धवों को जीतकर अपना यशोगान करने वाला बनाया । जोगी, जंगम और कपटी जीवों को उनके पद से गिराया । सन्यासी ऋषियों को स्वच्छन्द किया (उनका यश मलिन किया) और जो-जो साधु तप ग्रहण करने वन में चले गाए थे, उन सभीको पकड़कर लीखाने में डाल दिया गदरश जीन में फिर से ला दिया । उन पर अपनी आज्ञा चलाई अर्थात् दास बना लिया ।
व्याख्या-मदनके वश में सभी देवता हैं । उसे यह घमण्ड है कि सभी मेरे वश में हैं । यहाँ शंकर से अभिप्राय तामसी भावों से हैं । इन्द्र का अर्थ परिग्रही भावों से । हरि से तात्पर्य परनारी आदि के हरण करने वाले भावों से हैं । ब्रह्मा का अर्थ राग के उत्पादक कारण भावों से है । इन सभी भावों पर मदन का प्रभाव व्याप्त है । प्रवचनसार की "साउह चक्कधरा" आदि गाथा में इन्हीं का वर्णन है । संसार में सभी नागो का राजा वासुकी तक्षक नाग है, जो पाताल में रहता है, वह भी मदन के आधीन हैं । चन्द्र, सूर्य आदि सभी ग्रह नक्षत्र मदन के वश में होकर ही भ्रष्ट हए है । इस मैथुन की भावनाने ही देवलोग के देवों को मनुष्य पर्याय की अवस्था वाला बना दिया । यहाँ तक कि तपस्या में रत साधुओं को भी भ्रष्टाचारी बनाकर पुन: गृहस्थजीवन में ला दिया । दोहा :
सुणिकरि पोरषि मुझ तणड घालिउ मनु भरमाइ । सम्मुह आणि न जुज्झियउ गयंड विवेकु पलाइ ।।१३।।
अर्थ-हे प्रिय, मेरे इस तरह के पौरुषको सुनकर उस विवेक ने अपने मन में भ्रम डाल दिया । (अपनी शक्ति को क्षीण देखकर वह