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मदनजुद्ध काव्य
गए । फिर नारी के शरीर में राग के ही रंग से मनको रंगकर रहने लगे
और विषय-विषयों में ही सुख को भोगने लगे (अपने आत्मिक सुख को त्याग दिया)
वीर प्रमुके चरणोंका नित्य सेवक राजा श्रेणिक (मगध सम्राट) इंद्रियविषयोंका लोलुपी चित्रवाला नरक में जा पहुँचा, जहाँ ए... क्षण का भी सुख नहीं है । इस प्रकार दुस्सह मदन राजा युद्ध-स्थान में आ गया, आ गया कहते हुए देवगण भी सामान सहित दौड़कर चल पड़े ।।
व्याख्या-मनोविज्ञान कहता है कि जब मनमें कोई प्रकार की इच्छा प्रविष्ट हो जाती है, तो वह जब तक पूर्ण नहीं हो जाती, तब तक काँटे की तरह कष्ट पहुँचाती रहती है, उस दुःखको दूर करनेके लिए मनुष्य उसी प्रकारके उद्योगमें लगा रहता है, जिससे उसका प्रयोजन सिद्ध हो जाय । यह आत्या नादिकाल से मिकाका स्थान नादा है। निलागेसे विकार ही विशेष रूप से बढ़ते हैं । इन आशा रूपी विकारोंकी कोई सीमा नहीं हैं । निवृत्तिमार्गके द्वारा ही इन आशा समूहोंकी जड़ नष्ट की जा सकती है । बड़े-बड़े ऋषि-महर्षियों ने बस्तु-स्वरूपको जानकर निवृत्तिमार्ग को ग्रहण किया, फिर भी विकारों की जड़ ऐसी छिपी बैठी रही कि उसने पुन: उन्हें विषय-कषायोंके प्रवृत्ति मार्गमें लाकर पटक दिया। यह अभिलाषा ही विवेक बुद्धिको बिगाड़ती है । यह मदन का मद (नशा) बड़ा ही तीन है ।
एकि अबुह संजम रूपि छलिय मदनभूपि दीनिय संसारकूपि दंसण मठे । नित करहिं तित परपंधु अनेक जियह वंचु तजि मणि लेहि कंचु आपण हठे। ते तो रहिय पंच आरंभि सकहिं न व्रत थंभि उदरु भरहिं दंमि रंजिवि जणो आयो आयो रे मदनराइ दुसाहु लग्गा प्राइ थालय सुरपलाइ गहिवि तिणो ।।५।।
अर्थ–मदन राजाने एक अबुद्ध (अज्ञानी) संयमरूपी साधुको छलकर संसार रूपी कूप के दर्शन मठ में भेज दिया । वहाँ वह साधु नित्य प्रपंच करने लगा । उसके प्रभावमें अनेक जीव ठगे गए । उसने अपने हठ से उन सभीके कच्चे मनको अपने मठ में खींच लिया । वे सब पंचइंद्रियों के आरम्भ (गृहस्थीपने) में ऐसे फंसे कि फिर व्रतों को स्थिर नहीं रख सके । मनुष्यों का मनोरंजन कर असाधु बनकर (छल से) पेट भरने लगे।