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मदनजुद्ध काव्य
नट भाट जय जय कराहें पैसाच गंधव्य गावहिं । बहु खिल्लिय बुट्ट पनि कुजस पटहु गढमहि वजावहि माया करिउ वधावणड मोहह रंजिउ चित्तु सव्वाह इच्छा पुनिया धरि आयजिणि पुत्तु ।। ५७।।
अर्थ-(विवेक के अदृश्य हो जाने पर) जितने भी शुभदेश थे, मदनराजा ने वहाँ सर्वत्र भ्रमण किया । उसके सम्मुख नट नृत्य करने लगे, भाटगण जयजयकार करने लगे और पिशाच तथा गंधर्व (विजय के) गीत गाने लगे। दुष्टजन मन में बहुत खिलखिलाने लगे (प्रफुल्लित हुए) अपने गढ़ में कुयश रूपी नगाड़ा बजाने लगे । मायारानीने बधावना (विजय की बधाइयाँ) किया और मोहराजा का चित्त रंजयमान हुआ । जब पुत्र मदन विजय प्राप्तकर घर आ पहुँचा, तो सभी जीवों की इच्छा पूर्ण
व्याख्या-यहाँ पर कविने अपना अनुभव प्रकट किया है कि जब पंचेन्द्रिय भोग सम्बन्धी अभिलाष जीवके मन में प्रकट होने लगे उस समय विवेक पूर्वक एवं धैर्यपूर्वक काम लेना चाहिए । उस समय "शरणं सएक: परमात्मा "मानकर अपनी अमोध अन्तरात्मा में संवर का किला बनाना चाहिए जो पत्तन से उबारने वाला है । यह उपदेश प्रत्येक विवेकी जीवों के लिए हैं । इसीलिए भगवान ने विवेक को निकट बुलाकर संयमश्री से उसका सम्बन्ध करा दिया और कहा कि यदि तमको भोग ही चाहिए है, तो विरति रूपी योगों का आलिंगन करो, जो सुख अविनाशी हैं, उन्हें प्राप्त करो । कवि ने शुद्ध भावनाको भगवान बतलाया है। उन्होंने आगमन के इस अभिप्रायको भी प्रकट किया है कि रिरंसा अर्थात् भोगाभिलाषा का प्रतीक रिरंशा नहीं है किन्तु वैराग्य भावना है । अत: संसारको जीतने का उपाय अध्यात्म भावना ही है । इस प्रकार अन्तरात्मा में विचरण करने वाला विवेक सच्चा विजेता बन गया । उससे मदन इतना भयभीत हुआ कि उसने अपना आगे प्रयाण किया ही नहीं और कहने लगा कि भगोड़ों के पीछे लगना श्रेष्ठ वीरोंका धर्म नहीं है । बिना युद्ध किए ही मदन वापिस लौट आया । माता पाया और पिता ने बड़ा ही काल्पनिक हर्ष मनाया कि मदन ने शत्रु विवेक को भगा दिया । विवेक कुछ भी नहीं कर सका । जैसा कि भक्तामर में कहा गया है....."को विस्मयोत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्त्वं संश्रितो निस्वकाशतया मुनीश दोषैरूपात्तविविधाश्रय जात गर्वैः स्वप्नान्तरेपि न कदाचिद्पीक्षितोसि।।" यही संसार का रागादि स्वरूप है।