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मदनजुद्ध काव्य
व्रती साधु थे, उन उनको भी भ्रष्टाचरणवाला कर दिया। वे भी संसार सम्बन्धी अपार सुख भोगने वाले बन गए । वई (कामिनी नारियों) को देखकर ऐसे अंधे (मुग्ध) हो गए कि कर्मोंके फंदे में पड़ गए । उस कर्मके निमित्त से उन्होंने कुगति का बन्ध किया और घने (अनेक) जन्म धारण किए। जैसे कि ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती था, उसने कामभोगों के द्वारा नरक स्थिति का बन्ध कर, दुख भोगा और सातवें नरकमें जा पहुँचा (यहाँ अभी भी दुःख भोग रहा है )
ऐसा ( महाप्रमादी) दुस्सह मदनराजा आया है, आया हैं, कहकर, देवगण भी अपने तृण ( सामान) सहित उसके पीछे दौड़ पड़े ।
व्याख्या- यहाँ कवि ने ब्रह्मदत्त नामक चक्रवर्तीका दृष्टान्त दिया है। ब्रह्मदत्तका नाम आगम ग्रन्थोंमें प्रसिद्ध हैं । अन्य दृष्टान्त चारुदत्त सेठ का है । उसने भी वसन्तसेना वेश्याके वश में होकर अनेक संकटोंको प्राप्त किया। यतिजन भी मोहराजाके वश में होकर संसारके अनेक कष्टों को पस्न करते हैं एवं जनम के अपार दुःखोंको भोगते हैं । स्पर्शनेन्द्रियों के प्रभाव से स्वतन्त्रताका पात्र हस्ती थी, हस्तिनीके द्वारा गर्त में गिराकर परतन्त्र बना दिया जाता है । सभी इन्द्रियों के
“कुरङ्गमातङ्गभृङ्गमीना: हता पंचभिरेव पंच 1
तजियं ।
एक: प्रभादीस कथं न माहन्यते यः सेव्यते पंचभिरेव पंच ।" यह मोहका चक्र बड़ा जबरदस्त हैं । इससे कोई नहीं बच सकता 1 जिन कुंडरीक रिसि ताडि लीयउ सुभट पाडि राडि सिखर दियौ तपु लाए सवल सुसर अंगि रहिरा' सियह संगि विषय विषय सुख वीर चरण सेवकु नित्तु इंद्रिय लोलुप सेणिकु नरय पत्तु सुख न खिणो । आयौ आयो रे मदनराह दुसह लग्गह घाइ गहिवि पलाइ सुर
चितु
चलिय तिणो ।। ५० ।। अर्थ - उसने ( मदन राजा ने) पुण्डरीक ऋषि जैसे अच्छे वीरको भी अपने कटाक्ष शस्त्रोंसे प्रताड़न देकर पटक दिया । उनके सिरके ऊपर ऐसी राड (विषयों की लड़ाई) लगा दी कि वे तपको छोड़कर भोगी बन गए ( सब वीरता गँवा बैठे ) । सबल रागके स्वर उन ऋषिके अंग में आ
१. क. रहिउ
रगि
भजियं ।