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प्रस्तावना
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रूपक
प्रस्तुन काव्य एक रूपक-काव्य है । इसलिए इसम रूपक का प्राच्य है । एक से एक अनूठे रूपको की योजना कवि ने की है । कवि ने अपने चर्म चक्षुओ से देखे पदार्थों का अनुभव कर अपनी काल्पनिक सहृदयता में बाह्य जगत और अनजगत का सन्दर समन्वय कर दिखाया है • रूप में उपमेय पर उपमान का अभेद आशेप होता है । इसम मादृश्य का चामत्कारिक प्रयोग परिलक्षित होता है । रूपक अलंकार सरोपालक्षणा पर आधारित रहना है । एक प्रसंग में कवि ने ज्ञान सरोवर का सुन्दर रूपक उपस्थित किया है । यथा
"ज्ञान सरता ध्यान निस् पालि । जलु वाणी विमल मई सघण वृक्ष तहि बात बारह । थिरु पंखी जोम तहिं नलिनि प्रगट प्रतिमा इग्यारह । अड़तालीसउं रिद्धि तङ्गिं आनंद-कुंभ भरेहि ।। एक जीह ने मुंदरी बहु थुति जैन करेंहि ।। (17)
अर्थात उस नगरी में ज्ञानरूपी एक सरोवर है, जिसकी ध्यानरूपी पर (तट) है । उसमें विमल-मतियो की वाणीरूपी जल है, वहाँ बारह ब्रतरूपी सघन वृक्ष है । स्थिर योगरूपी पक्षी सुशोभित है । इस सरोवर हैं में ग्यारह प्रतिमारूपी कमलिनी प्रकट हुई है । अड़तालीस अदिरूपी महिलाएं प्रकट हुई हैं, जो आनन्दरूपी कुम्भ में जल भरती हैं । वे सभी सुन्दरी महिलाएं एक जिह्वा से जिनेन्द्रदेव की स्तुति करती
अन्य स्थलों पर भी कवि ने रूपक अलंकार का प्रयोग किया है । जैसे"उडु उट्ठ चन्दवयणी आरत्तउ वेगि उत्तारिं ।1 (59)
प्रस्तुत पंक्ति में रति के पुख पर चन्द्रमा का निषेध रहित आरोप द्रष्टव्य हैं । युद्ध-प्रसंग में कवि ने सभी गणात्मक भावों को रूपक के माध्यम से सेना और अस्त्र के रूप में प्रस्तुत किया है, जो कवि की विचक्षण प्रतिभा और कल्पना को व्यंजिन कर रहा है । ( देखिए, पद्य सं0 102-110, 135-138)
कवि ने लोक व्यवहार से अलग हटकर रूपक अलंकार का एक अनूठा ही उदाहरण प्रस्तुत किया है । यद्यपि सदियों से कवि-गण मुख पर कमन या चन्द्र उपमानों का आरोप करते आ रहे हैं, वहीं पर कवि बुचराज ने अपनी अप्रतिम प्रतिभा शक्ति का परिचय देते हुए "मुख" के लिए एकदम नवीन उपमान “आम्र" की कल्पना की है और "मुन'' पर उसका आरोप किया है । यथा
"ते अविरुउ भत्तिहि णिम्पल चितहि विकसित वदन रसालो । नदरुपकमभेदो य० उपमानायपेयम् कान्य प्रकाश. 0113.9