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मदनजुद्ध काव्य यह देखि जुद्ध सो कलिय कालु । खिण माहि फिरिउ ना रदु वि नारनु (114)
वहाँ नालु शब्द में श्लेष हैं । इसका एक अर्थ मुख का उर्ध्व-भाग अर्थात् नालु है और दृसग़ ताली बजाना है । पुनरुक्ति
काव्य की मन्दिर्थ-वृद्धि के लिए कान में जहाँ एक ही शब्द का चमत्कारपुर्ण आवृत्ति की है, नहाँ 'पुनरुक्ति अलंकार की योजना हुई है । प्रस्तुत कृति में इसके अनेक उदाहरण द्रष्टव्य हैं । जैसे--रोम-रोम ( पद्य 68), खोजत-खोजन ( पद्य, 14). ठामि-ठामि ( पद्य, 41) जी-जो, सो-सो, सा-सा ( पद्य, 141) आदि । यथा
वह अप्पु अप्पु अप्पठ भणंइ ।
वह अवरकोडि तिण बडि गणेड़ (84) वीप्सा
जहाँ शोक, क्रोध और भय आदि मनोवेगों के सूचक शब्दों का प्रयोग बार-बार किया जाता है वहाँ वीप्सा अलंकार होता है । उदाहरणार्थ ..
"भाजु भाजु रे मदन धुट आदिनाहु सिरि सट 1
देइ करइ दहवट प्रथम जिणे ।। (132) उपमा
साहित्य श्री की अलंकृति के लिए उपमा सर्वातिशयी अलंकार है । यह हृदयगत कोमल अनुभूतियों की सूक्ष्म अभिव्यंजना के लिए सर्वोत्तम अलंकार माना गया है। माध्ययक्त भावनाओं को दूसरे के हृदय तक सम्प्रेषित करने वाला उपमालंकार ही हैं । उपमा का सौन्दर्य उसकी व्यापक प्रेषणीयता में है। यह अनुभूनि- प्रवण है । उसका सौन्दर्य क्षण-क्षण नवीन मालूम पड़ता हैं । इस अलंकार के कुछ उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य है
"बुडत संसार महि हुइ तरंडु खिण माहि तारइ ।। (153)
अर्थात् जैनधर्म संसार-सागर में डूबते हुए मनुष्यों के लिए नौका समान है । "ने तप बलि सहु निद्दलहु भव तरु कंद कुदालि ।। (153)
अर्थात् यह साधु की तपस्या भवरूपी वृक्ष की जड़ को काटने वाली कुदाल के समान है।