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मदनमुद्ध काव्य
चक्र में पड़ा हुआ जरा भी शंका नहीं करता कि मेरा भविष्य कैसा होगा ? इस कपटी द्रोहीके साथ मुझे भी बँधना पड़ेगा । माया पटरानी विश्वको अपने अनुकूल बना रही थी । वह कहती थी कि हे संसारके जीव, तो मात्र एक मोह ही राजा है। मायाने प्रवृत्ति को आदर दिया और निवृत्तिकी तुम्हारा उपेक्षा की ।
मोहराज द्वारा युद्ध की तैयारी
दोहा :
चली निवर्ति विवेकु ले दीठे इसिय' अचार | मोह राज तव गजियड दल-बल सैन विधारि ||९||
अर्थ - राजा चेतनकी निवृत्ति रानी अपने पुत्र विवेकको लेकर चली ( जाने लगी ) ऐसे आचरणको देखकर मोह राजा गरजने लगा एवं उसने दलबल सहित अपनी नाका विस्तार किया ।
व्याख्या - रानी निवृत्तिका आदर न होनेसे वह विवेकको लेकर चली गई । यही नीति है कि जहाँ आदर नहीं है वहाँ मनस्वी स्त्री, देर भी नहीं ठहरते हैं । निवृत्ति का यह आचरण राजा मोहको अच्छा पुरुष थोड़ी नहीं लगा | मोहका निवृत्तिसे सदा ही विरोध रहा है । शत्रुको देखकर विरोध शीघ्र ही प्रकट हो जाता है और युद्धको तैयारी हो जाती है। कविने इस वर्णन को रूपकके रूपमें उपस्थित किया है। वास्तवमें अंतरंग भावोंकी कथा है । मोह ने सोचा कि यदि निवृत्ति मेरे अधिकारमें नहीं रही तो राजा चेतन मुझे नष्ट कर देगा। फिर मेरा ठिकाना नहीं रहेगा । अतः निवृत्तिको रोकना चाहिए । यदि मैंने निवृत्तिको पकड़ लिया तो मेरी विजय सभी जीवों पर सार्थक होगी । मैं त्रैलोक्य विजयी कहलाऊँगा । अन्यथा मुझे चेतन राजा का दास बनना पड़ेगा ।
पट्टरानी निर्वृत्ति का पुण्यपुरी-गमन, उसके पुत्र विवेक का सुमतिके साथ विवाह
गाथा छन्द :
गहु पुनपुरी नामो राजा तहं सत्तु करङ्ग थिरु लेइ पुशु यहुती बहु आदरु पाइडरे
तहिं
१. ख. इस इसिय
२. ख. कनकपुरीय ३. ग. पाइओ
रज्जो । तेणि ।। १० ।।