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मदनजुद्ध काव्य
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जलु वाणी विमल मड़ सघण वृक्ष तहिं बात बारह । थिरु पंखी, जोग तहिं नलिनि प्रगट प्रतिमा इग्यारह ! अड़तालीसउं रिद्धि तहिं आनद-कुंभ भरेहि । एक जीह ते सुंदरी बहु श्रुति जैन करेहि ।१७।।
अर्थ- उस पूण्यनगरी में ज्ञान नामक सरोवर है, जिसका ध्यान रूपी पार (तट) है, उसमें विमल-मतियोंका वाणी रूपी जल है । वहाँ बारह व्रत रूप सघन वृक्ष हैं । स्थिर योग रूपी पक्षी (सुशोभित) हैं । उस सरोवरमें ग्यारह प्रतिमा रूप कमलिनी एवं ४८ ऋद्धि रूपी महिलाएँ प्रकट हुई हैं, जो आनन्दरूपी कुम्भमें जल भरती हैं । वे सभी सुन्दरी महिलाएं एक जिह्वा से जैन (जिनेन्द्र गुणमयी) स्तुति करती हैं (वह ऐसा विशिष्ट सरोवर हैं) ।
व्याख्या--यहाँ आत्माके लिए सरोवरका रूपक प्रस्तुत किया गया है । ज्ञान आत्मासे भिन्न नहीं है । अत: आत्मा ही महान् सरोवर है | ज्ञानकी निर्मल विशुद्धि को सम्यग्यज्ञान कहते हैं । वहीं सुज्ञान जलाशय है । वही सुध्यान रूपी तटों से बँधा है । एकाग्र शुभ तथा शुद्ध परिणामोंको ध्यान कहते हैं । उसके धर्म और शुक्ल दो भेद हैं । उत्तमक्षमादि धर्मोसे युक्त होनेसे धर्म ध्यान होता है | कषाय रहित होनेसे उसे शुक्ल ध्यान कहते हैं । ये ध्यान ज्ञानको रागादि विकारों में नहीं जाने देते । इसलिए उसमें तृष्णारूपी तरंगे एवं मोहरूपी मगरमच्छ नहीं हैं । ऐसा निर्मल (कीचड़ रहित) निस्तरंग निरंग शुद्ध जल हैं । उस पुण्य नगरके निवासी निर्मल (वीतराग) पुरुषोंकी वाणी प्रमाणनय रूप जलका पान करते हैं । वहाँ विकथा, एकान्त रचित मिथ्याज्ञानियोंकी वाणी नहीं है । वहाँ १२ व्रत (अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत) रूप सघन (पत्र, पुष्प, फलोंसे परिपूर्ण) वृक्ष हैं, जिससे चित्त वहीं रम जाता है । अन्यत्र विषयोंमें नहीं जाना चाहता है। दोहा छन्द :
बहुदी जैन प्रशंसना करत सुणी वै नारि । कपटु बलिउ तब नयर कहुं रूप अतीकउ पारि ।।१८।।
अर्थ-बहुत सी नारियाँ वहाँ जिनेन्द्रकी प्रशंसाके गीत गा रही थी। उन गोतोंको कपट ने सुना । तब कपट कृत्रिम यती (साधु) का रूप धारण कर नगर की ओर चला ।
व्याख्या-उस पुण्यपुर नगरके सभी नर-नारी रात-दिन जिनेन्द्र का गुण गान किया करते थे । वहाँ कोई मोहराजाको नहीं जानता था । सभी