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मदनजुद्ध काव्य
अर्थ-गढ़के समान एक पुण्यपुरी नामकी नगरी थी । वहाँ सत्य नामका राजा राज्य करता था । उसका राज्य स्थिर था । वहाँ रानी निवृत्ति अपने पत्र (विवेक) को लेकर पहुँची । वहाँके राजा (सत्य) ने उसका बड़ा आदर-सम्मान किया ।।
व्याख्या—निवृत्ति सत्य नामक राजा के पास इसलिए चली गई कि वह मोहराजाको अपना शत्रु मानती थी । भोह अर्थात् मिथ्यात्वको निवृत्ति नहीं रुचती है । वह पर-पदार्थोकी निवृत्ति नहीं करने देता है । जहाँ निवृत्ति हैं, वहाँ मोह भाव दूर हो जाता है । मोह दो प्रकारका होता है। दर्शनमोह और चारित्र-मोह । उनमेंसे पहले दर्शन-मोहका अभाव होता है । पुन: क्रम-क्रम से चारित्र-मोह भी नष्ट हो जाता है । तब चेतन राजा शुद्ध होकर निर्वाणपुरी मे सदा के लिए स्थिर राज्य करता है । दोहा ; दीनी कन्या सत्ति तिसु सुमति-सरिस सुविशाल । थापिउ रज्जि विवेक थिरु घल्लि गहा गुणमास्न ।।११।।
अर्थ-राजा सत्य ने उस विवेकसे अपनी सुमति नामकी कन्याका विवाह कर दिया, जो सरस (शान्त रसवाली) तथा सुविशाल (उच्चविचार वाली) थी । राजाने विवेकके गले में गुणमाल (गुण रूपी माल धन दहेज) घालकर (डालकर) उसे अपने राज्यमें स्थिर रूप से स्थापित कर दिया।
व्याख्या—पहले ऐसी परम्परा थी कि राजा योग्य वर देखकर अपनी कन्याके साथ उसका विवाह कर देते थे और आधा राज्य भी दे देते थे, जिससे कि वह स्थिर होकर रहे, अन्यत्र न जाए । ऐसी माला डाली जाती थी कि वह उससे रुक जाता था । अब अंतरंग-भावोंकी ओर देखिए कि सदासे ही यह चेतन कुमतिपुत्र बाली प्रवृत्तिके साथ रहता है और विषयोंमें फंसा रहता है । निवृत्ति रानी को जब विवेक पुत्र होता है, अर्थात् समय पाकर जब भेद विज्ञान प्रकट होता है तब वह मोहको कुमति सम्बन्धके कारण छोड़ देता है । विवेकके साथ सुमति आ जाती है । साथमें अनेक गुण रत्नत्रय आ जाते हैं । जो गुण पहले क्रोधादि दोष रूप थे वह धर्मादि गुण रूप निर्दोष निर्विकार हो जाते हैं । तब वह सुमति पत्नी अपने विवेक पतिको अन्यके वश में नहीं रहने देती । विवेकको यह ज्ञान हो जाता है कि मैं एक शुद्ध अविनाशी, सुख का पिंड, तथा ज्ञान स्वभाव वाला हूँ। यही सुमति विषयोंकी प्रवृत्तिसे संग छुड़ाती है ।