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आभासपा---
प्रस्तुत ग्रन्थ में इस छन्द की संख्या 4 है । इसका उल्लेख छन्दकोश के 17वें प्रकरण में हुआ है । 21 मात्रा वाले गेय छन्दों में इसकी गणना की जानी है। इसके अन्त में नगण होता है । यथा
"करिवि पयाणउ मोहु महाभड़ चल्लियउ ।
सम्मुह झंखड वाय वधूलउ झुल्लियउ ।। (89) गीता-छन्द
इस छन्द के प्रत्येक चरण में 26 मात्राएँ होती हैं । यति 14 और 12 मात्रा पर होती है । चरणान्त में लघु और गुरु (1/5) का संयोजन रहता है । इसी छन्द को पिंगलशास्त्र मे गीतिका कहा गया है । यथा
"बज्जिउ निसाणु वसंत आय उछल्लि कुंद सुखिल्लियं ।। रुणझुणिय केयइ कलिय महुयर सुतरु पत्तिहिं छाइयं ।।
गावंति गीय वर्जति वीणा तरुणि पाइक आइयं ।। (37) अलंकार-योजना
काव्य में अलंकार-योजना का महत्वपूर्ण स्थान है 1 भारतीय-साहित्य-शास्त्र में आचार्यों ने अलंकार को शोभाकारक तत्त्व माना है । आचार्य भामह', वामन और जयदेव ने अलंकार की महत्ता को प्रतिष्ठित किया है । आचार्य दण्डी ने अलंकार को काव्य का शोभा विधायक धर्म माना है । आचार्य विश्वनाथ ने इसे रस का उपकारक मात्र माना हैं ।
अलंकार की काव्य में जो भी स्थिति रहती हो, इतना तो अवश्य मान्य है कि अलंकार भावों की अभिव्यक्ति को प्रांजल और प्रभावशाली बनाने में समर्थ होते हैं। अलंकारों की सार्थकता तभी सिद्ध होती है, जब वे रस, भावादि के तात्पर्य का आश्रय ग्रहण कर काव्य में सन्निविष्ट होते हैं ।
अलंकार भाव और भाषा को सौन्दर्य प्रदान करते हैं और उससे तादात्म्य स्थापित कर उसे मधुर एवं सजीव बना देते हैं । जो अलंकार अपनी प्रभावोत्पादकता के अभाव में रसध्वनि की अभिव्यंजना नहीं करते उन्हें अलंकार की संज्ञा से विभूषित नहीं किया जा सकता।
1. काव्यालंकार, 1/12 2. काव्यालंकार सूत्र 112 3. चन्द्रालोक, 18 4. काव्यदर्श. 27 5. साहित्यदर्पण, 1001 6. ध्वन्यालोक, 26