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प्रमापना बुलाइ ( 2173 ), बुलायउ ( 22/1 ) बगि बुलाइ ( 31/1 ) बुल्लिय ( 3712) बुल्लावइ ( 5412 ), लिय बुलाइ { 73/2 ) आदि ।
'द'' धातु के कुछ आदेशात्मक क्रिया रूप भी उल्लेखनीय हैं
देइ { 35/2 ), दियो { 138/5) देउ ( 14612), दिया ( 50/2 ) दौनिय । 51/2 ), दीयर ( 12812 ), दिय। 891), दीनी ( 11/1 ) आदि ।
प्रस्तुत अन्य में "ला" धातु अपने अनेक रूपों में प्रयुक्त है । यहाँ उसका अर्थ विस्तार दिखलाई पड़ता है । जैसे लेइ ( 7911 1 लेहि ( 78/2 ) लायन (1397 2), लावहिं ( 7914 ). ले । 6235 ) लेण ( 13/2 ), लेकर ( 6712 ) ला. ( 50:3 ), लियउ ( 465 ), लावहिं ( 7984 ) ल्यायउ ( 61/3 ) आदि ।
उक्त रवना में "लग्ग'' धातु भी अपनी विशेषता के साथ दिखलाई पड़ रही
जैसे—लग्गई ( 120/4 ), लग्गउ ( 46/7 ) लग्गहि ( 3913) लग्गि (58/1 ), लग्गिवि ( 12212), लग्गु ( 1 15/4 ), लगु लेकर ( 1512) इत्यादि ।
राजस्थानी भाषा में "घल्ल'' धातु का प्रयोग अत्यधिक होता है । उक्त कृति में भी अनेक बार उसका प्रयोग द्रष्टव्य है । यथा
घाल्या ( 135/1 ), घल्लिय ( 117/2 ), अल्लि ( 11/2 ), घालि ( 521 4), घालहिं ( 77/2 ), घल्लियड ( 104/1 ) घालिउ (63/1), घाले (62) 5 ) आदि ।
"देख'' थातु का प्रयोग भी कभी अपभ्रंश कभी राजस्थानी और कभी हिन्दी में प्रयुक्त हुआ है । यथा
अपभ्रंश—दिट्टि (101/1),दिट्ठठउ (27/2) दिट्ठी (27/2) दीठे (9/1), राजस्थानी–दीसई (24/5), देखिउ (2012), देसिवि (10213),
हिन्दी—देखत (1972), देखि (15/1) देखी (19/4), देखिया (98/2), आदि।
सूक्तियाँ–सूक्तियाँ सूत्र शैली में आबद्व ऐसी सुचिन्तित वाक्यावलि है जो अत्यन्त सरस-एवं रोचक होती है । वे सहजमम्य और मन पर उनका प्रभाव अमिट होता है । कवि अपने वर्णन-प्रसंगों को हृदय भेदी बनाने हेतु प्रसंगानुकुल सूक्ति वाक्यों की सर्जना करता है । उनके कारण वर्णन-सौन्दर्य उसी प्रकार अलंकृत होता है, जिस प्रकार नगीने जडी हुई अगूठी एवं उसे धारण करने वाली अंगुली ।
प्रस्तुत ग्रन्थ ऐसी हृदयावर्जक सूक्तियों का भाण्डारगृह है । उदाहरणार्थ कुछ प्रमुख सूक्तियों को यहाँ प्रस्तुत किया जाता है ।