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मसमजन काव्य आचार्य मम्मट ने सर्वप्रथम शान्त रस की उपादेयता को स्वीकार किया"शान्तों पि नवमारसः।।'' जिस प्रकार आनन्द की सम्प्राप्ति के लिए श्रृंगार रस की परम उपादेयता है उसी प्रकार परम मोक्ष की आध्यात्मिक सुखानुभूति के लिए शान्त रस की अपेक्षा है । शान्त रस की अनुभूति में संसार निस्सार प्रतीत होता है । चतुर्दिक त्रैराग्य और मंयम की आभा दिखलाई पड़ती है। इस रस का स्थायी भाव शम या निर्वेद होता है।
उक्त काव्य ग्रन्थ में शान्त रस अन्नःसलिला के प्रवाह सदृश निरन्तर प्रवहमान है । इसमें आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने संसार की नश्वरता और क्षणिकता का दिग्दर्शन करा कर मुक्ति का मार्ग निवेद के परिज्ञान को बतलाया । कवि का कथन हैं कि - मदन और मोह प्राणि-मात्र के शत्रु हैं और इनको समझ लेने पर ही वैराग्य का प्रादुर्भाव होता है, जो शान्त रस का आन्तरिक तत्व है । यथा--
"दुसहु वद्धतु मोहु परचंडु । भडु मयणु निकंदियउ कलियकालु तब पाडि लीयउ ।
जे वटपांडे धम्म के ते सब घाले वंदि । चेयण खउ छुडाइय: स्वामी रिसह जिणिंदि ।। (137) "सुणहु साधहं धम्मु हितकारणु । तो पालहु अखलमनि सुगइ होइ दुग्गइ निवारइ । बुड्डत संसार महि हुइ तरंडु खिण माहिं तारइ ।
ते तप बलि सह निद्दलहु भवतरु कंद कुदालि ।। (153)
इन वर्णनों द्वारा कवि ने शान्त रस की जो तप धारा बहाई है, वह अनुपम है । शान्न रस मानवीय मनोयोगों के पराभव के पश्चात उत्पत्र होता है और अन्तः-सलिला होकर प्रवाहित होता है । इसमें अनेक रसों का समाहार निश्चय ही कवि की विलक्षणता का द्योतक है। छन्द-विधान--
लय और स्वर की समन्विति ही छन्द हैं । स्वर और लय से नियन्त्रित गति अपने को भावधारा में संयमित करती हई प्रस्फुटित होती है । शब्द की सत्ता स्वतन्त्र नहीं है, उसे तो अर्थ-सौन्दर्य के द्वारा नियंत्रित रहना पड़ता है। स्वर और लय की
1. काव्यप्रकाश, 4/9 2. गनिसंयमाश्छन्दः अ.
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