________________
प्रस्तावना
२९ इसका स्थायी भाव भय. भयप्रद जीत्र आलम्बन, वस्तु अथवा दृश्य और दृश्य की भीषणता को बढ़ाने वाले कार्य-व्यापार, उद्दीपन, भयभीत व्यक्ति आश्रय, स्वेद, कम्प, रोमांच, स्वरभंग आदि अनुभाव एवं दैन्य, चिन्ता एवं त्रास आदि संचारी भाव
'भय गोम मयंकर पालि जाह । आसाता वेयणी नलिणि नाह । लहिं विरख तिक्ख करवाल पन । झडपडहिं तुहि छेदहिं ति गत्त (76) इक लेइ कुहाडु कूटहि गहीरु | करि खंड-खंडू घालहि सरीरु । जहिं तपा तपहिं नितु लोह थम ।
तिन्हि लावहिं अंगि जि खलिय बंभ । (79) बीभत्स
इस रस का स्थायी भाव जुगुप्सा है अतः जिस रचना से जुगुप्सा नामक भाव का उद्रेक हो, वहाँ उक्त रस का सन्द्राव माना है । प्रस्तुत रचना में नरक-वर्णन के प्रसंग में इस रस की व्यंजना हुई हैं । यथा
जहिं ढंक केक पक्खिय निनेह । जिन्ह चुंच संडासी भखहि देह (77)
प्याइयइ सु तांबउ नाइ सुद्ध । मदि मांसि जि हुंनि या जीन्न लुद्ध (80)
यहाँ मांस, मदिरा आदि आलम्बन विभाव है, चोंचों का संडासी के रूप में कार्य करना उद्दीपन विभाव है । ताँबे का रस पीना या मांस का भक्षण करना अनुभाव, दैन्य, हर्ष आदि संचारी भावों से पुष्ट वीभत्स रस का परिपाक हुआ है । शान्त-रस
कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ में इस रस को नौवाँ रस माना है, और इसे अमृत रस से सम्बोधित किया है । समस्त संसार कामजन्य विषय-वासनाओं में पूर्ण रूप से निमग्न है । यौवन के उन्माद में मानव काम-कथा ही सुनना पसन्द करते हैं और उसी में अनुरक्त हैं । वे अमृत ( शान्न ) रस की कथा सुनना पसन्द नहीं करते । यथा
"सुणहि नाहि जूवइ जे रत्त ।। जो रत्तिय काम-रसि बहु उपाधि धंधइ जि रत्तिय । नवमा रसु यह अभियरसु तेइ न सुणहि कानि (5)