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मडिल्ल - छंद
इस छन्द को प्राकृत पैंगलम में अडिल्ल कहा गया है। इस कृति में उल्लिखित छन्द के लक्षण अडिल्ल की भाँति ही हैं। इसमें "अ" के स्थान पर "म" हो जाने से यह "मडिल्ल" बन गया हैं । प्रस्तुत रचना में इस छन्द की कुल संख्या
12 !
पाथडी
प्रस्तावना
प्राकृत पैंगलम के अनुसार इसके प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती है । प्रारम्भ के दो चरणों में यमक ( तुकबन्दी ) हो तथा पादान्त में पर्यावर अर्थात् लघु, गुरु, लघु की संयोजना न हो । अन्त में सुप्रिय अर्थात् दो लघु मात्राएँ हों तो इसे अडिल्ल छन्द कहा गया हैं । इस छन्द का एक उदाहरण यहाँ दृष्टव्य हैं
"मोह धरिहि माया पटराणी ।
करइ न संक अधिक सबलाणी ।
करि परपंच जगतु फुसलावइ ।
नहिं निवर्ति किम आदरु पावइ ।। (8)
—
३३
प्रस्तुत ग्रन्थ में इस छन्द के कुल 13 पद्म हैं ( दे० 73 85 ) । इस छन्द में चार चरण होते हैं । प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती हैं और अन्त में गुरु, लघु की योजना रहती है तथा चरणान्त में तुकबन्दी रहती हैं। उसे "पाथड़ी छन्द" कहते हैं राजस्थानी भाषा में पद्धड़ी का पाथडी हो गया है। पद्धड़ी छन्द का ही अपरनाम पाथडी हैं । कवि ने प्रस्तुतग्रन्थ में दोनों ही प्रयोग किए हैं। इस छन्द का एक उदाहरण देखिए
"अब आइ जुडी यह विषम संधि ।
वह संक न मानइ जीति कंधि ।
वह अप्पु अप्पु अप्पउ भणेड़ वह अवर कोडि तिण वडि गणेइ ( 84 )
1. C & 1/125
? प. पद्य 102.119. 28-31
पद्धडी छन्द
इस कृति में पद्धड़ि छंद की कुल संख्या 22 हैं। इसमें चार चरण होते हैं । प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएं होती हैं। पादान्त में पयोधर अर्थात् जगण की योजना रहती हैं । प्राकृत पैंगलम में जो लक्षण पज्झटिका के दिए गए हैं, वे ही ज्यों के त्यों पद्धडी छन्द पर भी लागू होते हैं । अतः यह पज्झटिका का ही दूसरा नाम है । इसका एक उदाहरण देखिए