Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
१८
शब्दार्थ - अट्ठविहसत्तछब्बंधगेसु -- अष्टविध, सप्तविध, षड्"विध बंध के समय, अट्ठेव - आठों कर्म की, उदयसंताई - उदय और सत्ता, एगविहे - एकविध बंध के समय, तिविगप्पो-तीन विकल्प, एगविगप्पो -एक विकल्प, अबंधम्मि — अबन्ध दशा में, बंध न होने पर ।
सप्ततिका प्रकरण
गाथार्थ - आठ, सात और छह प्रकार के कर्मों का बंध होने के समय उदय और सत्ता आठों कर्म की होती है। एकविध ( एक का) बंध होते समय उदय व सत्ता की अपेक्षा तीन विकल्प होते हैं तथा बंध न होने पर उदय और सत्ता की अपेक्षा एक ही विकल्प होता है ।
विशेषार्थ - इस गाथा में मूल प्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता के संवेध भंगों का कथन किया गया है ।
आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक और छह प्रकृतिक बंध होने के समय आठ कर्मों का उदय और आठों कर्मों की सत्ता होती है। 'अट्ठेव उदयसंताई' । अर्थात् (सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीव मिश्र गुणस्थान को छोड़कर आयुबंध के समय आठों कर्मों का बंध कर सकते हैं अतः उनके आठ प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता होती है । अनिवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान तक के जीव आयुकर्म के बिना शेष सात कर्मों का बंध करते हैं किन्तु उनके उदय और सत्ता आठ कर्मों की हो सकती है और सूक्ष्मसंपराय संयत आयु व मोहनीय कर्म के बिना छह कर्मों का बंध करते हैं लेकिन इनके भी आठ कर्मों का उदय और सत्ता होती है ।
इस प्रकार से कर्मों की बंध प्रकृतियों में भिन्नता होने पर उदय और सत्ता एक जैसी मानने का कारण यह है कि उपर्युक्त सभी जीव सराग होते हैं और सरागता का कारण मोहनीय कर्म का उदय है और जब मोहनीय कर्म का उदय है तब उसकी सत्ता अवश्य ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org