Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सप्ततिका प्रकरण
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भी गुणस्थान में किया जा सकता है किन्तु अपूर्वकरण गुणस्थान में तो नियम से इनका उपशमन हो ही जाता है ।
गाथा में अनंतानुबंधी चतुष्क आदि सात प्रकृतियों के उपशम करने का निर्देश करते हुए पहले अनंतानुबंधी चतुष्क को उपशम करने की सूचना दी है अतः पहले इसी का विवेचन किया जाता है । अनंतानुबंधी की उपशमना
अनंतानुबंधी चतुष्क की उपशमना करने वाले स्वामी के प्रसंग में बतलाते हैं कि अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, विरत (प्रमत्त और अप्रमत्त) गुणस्थानवर्ती जीवों में से कोई भी जीव किसी भी योग में वर्तमान हो अर्थात् जिसके चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक काययोग, इनमें से कोई एक योग हो, जो पीत, पद्म और शुक्ल, इन तीन शुभ लेश्याओं में से किसी एक लेश्या वाला हो, जो साकार उपयोग वाला (ज्ञानोपयोग वाला) हो, जिसके आयुकर्म के बिना सत्ता में स्थित शेष सात कर्मों की स्थिति अन्तः कोड़ा - कोड़ी सागर के भीतर हो, जिसकी चित्तवृत्ति अन्तर्मुहूर्त पहले से उत्तरोत्तर निर्मल हो, जो परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों को छोड़कर शुभ प्रकृतियों का ही बंध करने लगा हो, जिसने अशुभ प्रकृतियों के सत्ता में स्थित चतुःस्थानी अनुभाग को द्विस्थानी कर लिया हो और शुभ प्रकृतियों के सत्ता में स्थित द्विस्थानी अनुभाग को चतुःस्थानी कर लिया हो और जो एक स्थितिबंध के पूर्ण होने पर अन्य स्थितिबंध को पूर्व - पूर्व स्थितिबंध की अपेक्षा उत्तरोत्तर पल्य के संख्यातवें भाग कम बाँधने लगा हो - ऐसा जीव ही अनंतानुबंधीचतुष्क को उपशमाता है । '
१ अविरतसम्यग्दृष्टि- देशविरत विरतानामन्यतमोऽन्यतमस्मिन् योगे वर्तमानस्तेजः-पद्म-शुक्ल लेश्याऽन्यतम लेश्या युक्तः साकारोपयोगोपयुक्तोऽन्तः सागरोपमकोटा कोटी स्थितिसत्कर्मा करणकालात् पूर्वमपि अन्तर्मुहूर्त कालं यावदवदायमानचित्तसन्ततिरवतिष्ठते । तथाऽवतिष्ठमानश्च परावर्तमानाः प्रकृती:
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