Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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केवली जिन, उक्कोस-उत्कृष्ट से, जहन्न-जघन्य से, एक्कारंग्यारह ।
गाथार्थ-अयोगिजिन उत्कृष्ट रूप से दोनों वेदनीय में से किसी एक वेदनीय, मनुष्याय, उच्चगोत्र और नामकर्म की नौ प्रकृतियाँ, इस प्रकार बारह प्रकृतियों का वेदन करते हैं तथा जघन्य रूप से ग्यारह प्रकृतियों का वेदन करते हैं ।
विशेषार्थ-अयोगिकेवली गुणस्थान में उपान्त्य समय तक कर्मों की कुछ एक प्रकृतियों को छोड़कर शेष प्रकृतियों का क्षय हो जाता है। लेकिन जो प्रकृतियां अन्तिम समय में क्षय होती हैं उनके नाम इस गाथा में बतलाते हैं कि किसी एक वेदनीय कर्म, मनुष्यायु, उच्च गोत्र और नामकर्म की नौ प्रकृतियों का क्षय होता है ।
यहाँ (अयोगिकेवली अवस्था में) किसी एक वेदनीय के क्षय होने का कारण यह है कि तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में साता और असाता वेदनीय में से किसी एक वेदनीय का उदयविच्छेद हो जाता है। यदि साता का विच्छेद होता है तो असाता वेदनीय का और असाता का विच्छेद होता है तो साता वेदनीय का उदय शेष रहता है । इसी बात को बतलाने के लिये गाथा में 'अन्नयरवेयणीयं'-अन्यतर वेदनीय पद दिया है।
इसके अलावा गाथा में उत्कृष्ट रूप से बारह और जघन्य रूप से ग्यारह प्रकृतियों के उदय को बतलाने का कारण यह है कि सभी जीवों को तीर्थंकर प्रकृति का उदय नहीं होता है। तीर्थंकर प्रकृति का उदय उन्हीं को होता है जिन्होंने उसका बंध किया हो। इसलिये अयोगिकेवली अवस्था में अधिक से अधिक बारह प्रकृतियों का और कम से कम ग्यारह प्रकृतियों का उदय माना गया है।
बारह प्रकृतियों के नामोल्लेख में नामकर्म की नौ प्रकृतियां हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org