Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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परिशिष्ट - २
नियत अर्थ को कहने में समर्थ है तथा श्रुतानुसारी ( शब्द और अर्थ के विकल्प से युक्त ) है उसे मावश्रुत कहते हैं ।
भावेन्द्रिय -- मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न आत्म-विशुद्धि अथवा उस विशुद्धि से उत्पन्न होने वाला ज्ञान ।
भाषा -- शब्दोच्चार को भाषा कहते हैं । भाषा पर्याप्ति
- उस शक्ति की पूर्णता को कहते हैं जिससे जीव भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा रूप परिणमावे और उसका आधार लेकर अनेक प्रकार की ध्वनि रूप में छोड़े ।
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भाषाप्रायोग्य उत्कृष्ट वर्गणा - भाषाप्रायोग्य जघन्य वर्गणा से एक-एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ते जघन्य वर्गणा के अनन्तवें भाग अधिक प्रदेश वाले स्कन्धों की भाषाप्रायोग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है ।
भाषाप्रायोग्य जघन्य वर्गणा - तैजस शरीर की
ग्रहण योग्य उत्कृष्ट वर्गणा के बाद की अग्रहण योग्य उत्कृष्ट वर्गणा से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों की जो वर्गणा होती है, वह भाषा प्रायोग्यजघन्य वर्गणा है ।
भूयस्कार बंध - पहले समय में कम प्रकृतियों का बंध करके दूसरे समय में उससे अधिक कर्म प्रकृतियों के बंध को भूयस्कार बंध कहते हैं ।
भोग-उपभोग - एक बार भोगे जाने वाले पदार्थों को भोग और बार-बार भोगे जाने वाले पदार्थों को उपभोग कहते हैं ।
भोगान्तराय कर्म - भोग के साधन होते हुए भी जिस कर्म के उदय से जीव भोग्य वस्तुओं का भोग न कर सके ।
(म)
मतिज्ञान -- इन्द्रिय और मन के द्वारा यथायोग्य स्थान में अवस्थित वस्तु का होने वाला ज्ञान ।
मतिअज्ञान -- मिथ्यादर्शन के उदय से होने वाला विपरीत मति उपयोग रूप
ज्ञान ।
मतिज्ञानावरण कर्म-मति ज्ञान का आवरण करने वाला कर्म ।
मधुररस नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर - रस मिश्री आदि मीठे पदार्थों जैसा हो ।
मध्यम अनन्तानन्त – जघन्य अनन्तानन्त के आगे की सब संख्याएँ । For Private & Personal Use Only
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