Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 554
________________ परिशिष्ट-२ विकल प्रत्यक्ष - चेतना शक्ति के अपूर्ण विकास के कारण जो ज्ञान मूर्त पदार्थों की समग्र पर्यायों भावों को जानने में असमर्थ हो । वितस्ति-दो पाद की एक वितस्ति होती है । ५५ विनय मिथ्यात्व - सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देव, गुरु और उनके कहे हुए शास्त्रों में समान बुद्धि रखना । विपाक - कर्म प्रकृति की विशिष्ट अथवा विविध प्रकार के फल देने की शक्ति को और फल देने के अभिमुख होने का विपाक कहते हैं । विपाक - काल -कर्म प्रकृतियों का अपने फल देने के अभिमुख होने का समय । विपरीत मिथ्यात्व - धर्मादिक के स्वरूप को विपरीत रूप मानना । विपुलमति मनः पर्यायज्ञान -- चिन्तनीय वस्तु की पर्यायों को विविध विशेषताओं सहित स्फुटता से जानना । विभंगज्ञान - मिध्यात्व के उदय से रूपी पदार्थों के विपरीत अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहते हैं | विरति - हिंसादि सावध व्यापारों अर्थात् पापजनक प्रयत्नों से अलग हो जाना । विशुद्ध यमानक सूक्ष्मसंपराय संयम -- उपशमश्रेणि या क्षपकश्रेणि का आरोहण करने वालों को दसवें गुणस्थान की प्राप्ति के समय होने वाला संयम । विशेषबन्ध - किसी खास गुणस्थान या किसी खास गति आदि को लेकर जो बंध कहा जाता है उसे विशेषबंध कहते हैं । विसंयोजना - प्रकृति के क्षय होने पर भी पुनः बंध की सम्भावना बनी रहे । विहायोगति नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव की चाल हाथी, बैल आदि की चाल के समान शुभ या ऊँट, गधे की चाल के समान अशुभ होती है । वीर्यान्तरायकर्म जिस कर्म के उदय से जीव शक्तिशाली और निरोग होते हुए भी कार्य विशेष में पराक्रम न कर सके, शक्ति सामर्थ्य का उपयोग न कर सके । वेद - जिसके द्वारा इन्द्रियजन्य, संयोगजन्य सुख का वेदन किया जाये । अथवा मैथुन सेवन करने की अभिलाषा को वेद कहते हैं । अथवा वेद मोहनीयकर्म के उदय, उदीरणा से होने वाला जीव के परिणामों का सम्मोह ( चंचलता ) जिससे गुण-दोष का विवेक नहीं रहता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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