Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

View full book text
Previous | Next

Page 556
________________ परिशिष्ट-२ ५७ वैक्रियशरीर नामकर्म -- जिस कर्म के उदय से जीव को वैक्रियशरीर प्राप्त हो। वैक्रियशरीरयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा --वैक्रियशरीर के ग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा से उसके अनन्तवें भाग अधिक स्कन्धों की वैक्रियशरीरयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है। वैक्रियशरीरयोग्य जघन्य वर्गणा-औदारिक शरीर के अग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा के स्कन्धों से एक अधिक परमाणु वाले स्कन्धों की समूह रूप वर्गणा। वैक्रियसंघातन नामकर्म-जिस कर्म के उदय से वैक्रिय शरीर रूप परिणल पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य हो। वैक्रियसमुद्घात -वैक्रिय शरीर के निमित्त से होने वाला समुद्घात । वैनयिकी बुद्धि-गुरुजनों आदि की सेवा से प्राप्त होने वाली बुद्धि । व्यंजन --पदार्थ के ज्ञान को अथवा जिसके द्वारा पदार्थ का बोध किया जाता है। व्यंजनाक्षर-जिससे अकार आदि अक्षरों के अर्थ का स्पष्ट बोध हो। अथवा अक्षरों के उच्चारण को व्यंजनाक्षर कहते हैं। व्यंजनावग्रह-अव्यक्त ज्ञान रूप अर्थावग्रह से पहले होने वाला अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान । व्यवहार परमाणु- अनन्त निश्चय परमाणुओं का एक व्यवहार परमाणु होता है । व्यवहार सम्यक्त्व-- कुगुरु, कुदेव और कुमार्ग को त्याग कर सुगुरु, सुदेव और सुमार्ग को स्वीकार करना, उनकी श्रद्धा करना । व्रतयुक्तता-हिंसादि पापों से विरत होना व्रत है । अणुव्रतों या महाव्रतों के पालन करने को व्रतयुक्तता कहते हैं । शरीर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव के औदारिक, वैक्रिय आदि शरीर बने अथवा औदारिक आदि शरीरों की प्राप्ति हो। शरीर पर्याप्ति --- रस के रूप में बदल दिये गये आहार को रक्त आदि सात धातुओं के रूप में परिणमाने की जीव की शक्ति की पूर्णता । शलाकापल्य-जिस पल्य को एक-एक साक्षीभूत सरसों के दाने से भरा जाता है, उसे शलाकापल्य कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584