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परिशिष्ट-२
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वैक्रियशरीर नामकर्म -- जिस कर्म के उदय से जीव को वैक्रियशरीर प्राप्त हो। वैक्रियशरीरयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा --वैक्रियशरीर के ग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा
से उसके अनन्तवें भाग अधिक स्कन्धों की वैक्रियशरीरयोग्य उत्कृष्ट
वर्गणा होती है। वैक्रियशरीरयोग्य जघन्य वर्गणा-औदारिक शरीर के अग्रहणयोग्य उत्कृष्ट
वर्गणा के स्कन्धों से एक अधिक परमाणु वाले स्कन्धों की समूह रूप
वर्गणा। वैक्रियसंघातन नामकर्म-जिस कर्म के उदय से वैक्रिय शरीर रूप परिणल
पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य हो। वैक्रियसमुद्घात -वैक्रिय शरीर के निमित्त से होने वाला समुद्घात । वैनयिकी बुद्धि-गुरुजनों आदि की सेवा से प्राप्त होने वाली बुद्धि । व्यंजन --पदार्थ के ज्ञान को अथवा जिसके द्वारा पदार्थ का बोध किया
जाता है। व्यंजनाक्षर-जिससे अकार आदि अक्षरों के अर्थ का स्पष्ट बोध हो। अथवा
अक्षरों के उच्चारण को व्यंजनाक्षर कहते हैं। व्यंजनावग्रह-अव्यक्त ज्ञान रूप अर्थावग्रह से पहले होने वाला अत्यन्त अव्यक्त
ज्ञान । व्यवहार परमाणु- अनन्त निश्चय परमाणुओं का एक व्यवहार परमाणु होता है । व्यवहार सम्यक्त्व-- कुगुरु, कुदेव और कुमार्ग को त्याग कर सुगुरु, सुदेव और
सुमार्ग को स्वीकार करना, उनकी श्रद्धा करना । व्रतयुक्तता-हिंसादि पापों से विरत होना व्रत है । अणुव्रतों या महाव्रतों के
पालन करने को व्रतयुक्तता कहते हैं ।
शरीर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव के औदारिक, वैक्रिय आदि शरीर
बने अथवा औदारिक आदि शरीरों की प्राप्ति हो। शरीर पर्याप्ति --- रस के रूप में बदल दिये गये आहार को रक्त आदि सात
धातुओं के रूप में परिणमाने की जीव की शक्ति की पूर्णता । शलाकापल्य-जिस पल्य को एक-एक साक्षीभूत सरसों के दाने से भरा जाता
है, उसे शलाकापल्य कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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