Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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परिशिष्ट-२
प्रकृति स्थान -- दो या तीन आदि प्रकृतियों का समुदाय ।
प्रचला -- जिस कर्म के उदय से बैठे-बैठे या खड़े-खड़े ही नींद आने लगे । प्रचलाप्रचला -- जिस कर्म के उदय से चलते-फिरते ही नींद आ जाये । प्रतर--श्रेणि के वर्ग को प्रतर कहते हैं ।
प्रतिपत्ति श्रुत-गति, इन्द्रिय आदि द्वारों में से किसी एक द्वार के जरिए समस्त संसार के जीवों को जानना ।
प्रतिपत्तिसमास श्रुत-गति आदि दो-चार द्वारों के जरिए जीवों का ज्ञान होना ।
प्रतिपाती अवधिज्ञान -- जगमगाते दीपक के वायु के झोंके से एकाएक बुझ जाने के समान एकदम लुप्त होने वाला अवधिज्ञान ।
प्रतिशलाका पल्य-प्रतिसाक्षीभूत सरसों के दानों से भरा जाने वाला पल्य । प्रतिश्रवणानुभूति-- पुत्र आदि किसी सम्बन्धी के द्वारा किये गये पाप कर्मों को केवल सुनना और सुनकर भी उन कर्मों के करने से उनको न रोकना । प्रतिसेवनानुभूति - अपने या दूसरे के किये हुए भोजन आदि का उपयोग करना । प्रत्यक्ष --- मन, इन्द्रिय, परोपदेश आदि पद निमित्तों की अपेक्षा रखे बिना एकमात्र आत्मस्वरूप से ही समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायों को जानना । प्रत्यनीकत्व -- ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों के प्रतिकूल आचरण करना । प्रत्याख्यानावरण कषाय --- जिस कषाय के प्रभाव से आत्मा को सर्वविरति चारित्र प्राप्त करने में बाधा हो, अर्थात् श्रमणधर्म की प्राप्ति न हो । प्रत्येक नामकर्म -- जिस कर्म के उदय से एक शरीर का स्वामी एक ही जीव हो । प्रथमस्थिति -- अन्तर स्थान से नीचे की स्थिति ।
प्रदेश --- कर्म दलिकों को प्रदेश कहते हैं ।
पुद्गल के एक परमाणु के अवगाह स्थान की संज्ञा मी प्रदेश है । प्रवेशबंध -- जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्म स्कन्धों का सम्बन्ध होना । प्रदेशोदय -- बंधे हुए कर्मों का अन्य रूप से अनुभव होना । अर्थात् जिन कर्मों के दलिक बाँधे हैं उनका रस दूसरे भोगे जाने वाले सजातीय प्रकृतियों के निषेकों के साथ भोगा जाये, बद्ध प्रकृति स्वयं अपना विपाक न बता सके । प्रष-- ज्ञानियों और ज्ञान के साधनों पर द्वेष रखना, अरुचि रखना प्रद्वेष
कहलाता है ।
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