Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पारिभाषिक शब्द-कोष
कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा न रखने वाले द्रव्य . की स्वाभाविक अनादि पारिणामिक शक्ति से ही आविर्भूत भाव को
पारिणामिक भाव कहते हैं। पिंड प्रकृति-अपने में अन्य प्रकृतियों को गमित करने वाली प्रकृति । पुण्य-जिस कर्म के उदय से जीव को सुख का अनुभव होता है । पुण्य कर्म-जो कर्म सुख का वेदन कराता है । पुण्य प्रकृति-जिस प्रकृति का विपाक-फल शुभ होता है । पुद्गलपरावर्त- ग्रहण योग्य आठ वर्गणाओं (औदारिक, वैक्रिय, आहारक,
तेजस शरीर, भाषा, श्वासोच्छवास, मन, कार्मण वर्गणा) में से आहारक शरीर वर्गणा को छोड़कर शेष औदारिक आदि प्रकार से रूपी द्रव्यों को ग्रहण करते हुए एक जीव द्वारा समस्त लोकाकाश के पुद्गलों का
स्पर्श करना । पुगलविपाकी प्रकृति-जो कर्म प्रकृति पुद्गल में फल प्रदान करने के सन्मुख
हो अर्थात् जिस प्रकृति का फल आत्मा पुद्गल द्वारा अनुभव करे । औदारिक आदि नामकर्म के उदय से ग्रहण किये गये पुद्गलों में जो कर्म
प्रकृति अपनी शक्ति को दिखावे, वह पुद्गल विपाकी प्रकृति है । पुरुषवेद--जिसके उदय से पुरुष को स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो । पूर्व--चौरासी लाख पूर्वाङ्ग का एक पूर्व होता है । पूर्वश्रुत--अनेक वस्तुओं का एक पूर्व होता है । उसमें से एक का ज्ञान पूर्वश्रुत
कहलाता है। पूर्वसमासश्रत-दो-चार आदि चौदह पूर्वो तक का ज्ञान । पूर्वाङ्ग-चौरासी लाख वर्ष का एक पूर्वाङ्ग होता है । पूर्वानुपूर्वी-जो पदार्थ जिस क्रम से उत्पन्न हुआ हो या जिस क्रम से सूत्रकार
के द्वारा स्थापित किया गया हो, उसकी उसी क्रम से गणना करना । पृथ्वीकाय--पृथ्वी से बनने वाला पार्थिव शरीर । प्रकृति--कर्म के स्वभाव को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति बंध--जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में भिन्न-भिन्न शक्तियों
स्वभावों का उत्पन्न होना, अथवा कर्म परमाणुओं का ज्ञानावरण आदि
के रूप में परिणत होना । प्रकृतिविकल्प--प्रकृतियों के भेद से होने वाले मंग । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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