Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 539
________________ पारिभाषिक शब्द - कोष नीललेश्या - अशोक वृक्ष के समान नीले रंग के लेश्या पुद्गलों से आत्मा में ऐसा परिणाम उत्पन्न होना कि जिससे ईर्ष्या, असहिष्णुता, छल-कपट आदि होने लगें । नीलवर्ण नामकर्म- - जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर तोते के पंख के जैसा हरा हो । 1 नोकषाय - जो स्वयं तो कषाय न हो किन्तु कषाय के उदय के साथ जिसका उदय होता है अथवा कषायों को पैदा करने में उत्तेजित करने में सहायक हो । न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान नामकर्म -- जिस कर्म के उदय से शरीर की आकृति न्यग्रोध ( वटवृक्ष) के समान हो अर्थात् शरीर में नाभि से ऊपर के अवयंत्र पूर्ण मोटे हों और नाभि से नीचे के अवयव हीन - पतले हों । ४० (प) पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म -- जिस कर्म के उदय से जीव को पाँचों इन्द्रियाँ प्राप्त हों । पंडित वीर्यान्तराय कर्म -- सम्यग्दृष्टि साधु मोक्ष की चाह रखते हुए भी जिस कर्म के उदय से उसके योग्य क्रियाओं को न कर सकें ! पतद्ग्रह प्रकृति -- आकर पड़ने वाले कर्म दलिकों को ग्रहण करने वाली प्रकृति । पद --- प्रत्येक कर्म प्रकृति को पद कहते हैं । पदवृन्द--पदों के समुदाय को पदवृन्द कहा जाता है । पदत--अर्थावबोधक अक्षरों के समुदाय को पद और उसके ज्ञान को पदश्रुत कहते हैं । पदसमासश्रत --- पदों के समुदाय का ज्ञान । पद्म -- चौरासी लाख पद्मांग का एक पद्म होता है । पद्म लेश्या -- हल्दी के समान पीले रंग के लेश्या पुद्गलों से आत्मा में ऐसे परिजामों का होना जिससे काषायिक प्रवृत्ति काफी अंशों में कम हो, चित्त प्रशान्त रहता हो, आत्म-संयम और जितेन्द्रियता की वृत्ति आती हो । पद्मग-- चौरासी लाख उत्पल का एक पयांग होता है । पराघात नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव बड़े-बड़े बलवानों की दृष्टि में भी अजेय मालूम हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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