Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
पारिभाषिक शब्द-कोष
बातें लोक में फैलाना, उन्हें मार्मिक पीड़ा हो ऐसा कपट-जाल फैलाना ..
आशातना है। आसन्न भव्य-निकट काल में ही मोक्ष को प्राप्त करने वाला जीव । मानव-शुभाशुभ कर्मों के आगमन का द्वार । आहार-शरीर नामकर्म के उदय से देह, वचन और द्रव्य मन रूप बनने योग्य ..
नोकर्म वर्गणा का जो ग्रहण होता है, उसको आहार कहते हैं । अथवा तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण को आहार
कहते हैं। आहार पर्याप्ति-बाह्य आहार पुद्गलों को ग्रहण करके खलभाग रसमाग में
परिणमाने की जीव की शक्ति विशेष की पूर्णता। . . आहार संज्ञा-आहार की अभिलाषा, क्षुधा, वेदनीय कर्म के उदय से होने वाले
आत्मा का परिणाम विशेष । आहारक-ओज, लोम और कवल इनमें से किसी भी प्रकार के आहार को
ग्रहण करने वाले जीव को आहारक कहते हैं । अथवा समय-समय जो
आहार करे उसे आहारक कहते हैं। आहारक अंगोपांग नामकर्म-जिस कर्म के उदय से आहारक शरीर रूप परिणत
पुद्गलों से अंगोपांग रूप अवयवों का निर्माण हो। आहारक काययोग-आहारक शरीर और आहारक शरीर की सहायता से होने
वाला वीर्य-शक्ति का व्यापार । आहारककार्मणबंधन नामकर्म-जिस कर्म के उदय से आहारक शरीर पुद्गलों - का कार्मण पुद्गलों के साथ सम्बन्ध हो। माहारकतंजसकामणबंधन नामकर्म-जिस कर्म के उदय से आहारक शरीर
पुद्गलों का तेजस-कार्मण पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होता है। आहारकतंजसबंधन नामकर्म--जिसके उदय से आहारक शरीर पुद्गलों का
तैजस पुद्गलों के साथ सम्बन्ध हो। आहारकमिश्र काययोग-आहारक शरीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होने के प्रथम
समय से लगाकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीर को आहारक मिश्रकाय कहते हैं और उसके द्वारा उत्पन्न
योग को आहारकमिश्र काययोग कहते हैं । अथवा आहारक और औदाJain Educațion International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org