Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
सप्ततिका प्रकरण
४२८
का क्षय हो जाता है । यहाँ पुरुषवेद के उदय और उदीरणा का विच्छेद हो चुका है, इसलिये यह अपगतवेदी हो जाता है ।
उक्त कथन पुरुषवेद के उदय से क्षपकश्रेणि का आरोहण करने वाले जीव की अपेक्षा जानना चाहिये । किन्तु जो जीव नपुंसकवेद के उदय से क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है, वह स्त्रीवेद और नपुंसक वेद का एक साथ क्षय करता है तथा इसके जिस समय स्त्रीवेद और नपुंसक वेद का क्षय होता है, उसी समय पुरुषवेद का बंधविच्छेद होता है और इसके बाद वह अपगतवेदी होकर पुरुषवेद और छह नोकषायों का एक साथ क्षय करता है । यदि कोई जीव स्त्रीवेद के उदय से क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है तो वह नपुंसकवेद का क्षय हो जाने के पश्चात् स्त्रीवेद का क्षय करता है, किन्तु इसके भी स्त्रीवेद के क्षय होने के समय ही पुरुषवेद का बंधविच्छेद होता है और इसके बाद अपगतवेदी होकर पुरुषवेद और छह नोकषायों का एक साथ क्षय करता है ।
पुरुषवेद के आधार से क्षपकश्रेणि का वर्णन
जो जीव पुरुषवेद के उदय से क्षपकश्रेणि पर आरोहण कर क्रोध कषाय का वेदन कर रहा है तो उसके पुरुषवेद का उदयविच्छेद होने के बाद क्रोध कषाय का काल तीन भागों में बँट जाता हैअश्वकर्णकरणकाल', किट्टीकरणकाल और किट्टीवेदन
१
अश्वकर्णकरण काल --- घोड़े के कान को अश्वकर्ण कहते हैं । यह मूल में बड़ा और ऊपर की ओर क्रम से घटता हुआ होता है । इसी प्रकार जिस करण में क्रोध से लेकर लोभ तक चारों संज्वलनों का अनुभाग उत्तरोत्तर अनंत गुणहीन हो जाता है, उस करण को अश्वकर्णकरण कहते हैं । इसके आदोलकरण और उद्वर्तनापवर्तनकरण, ये दो नाम और देखने को मिलते हैं ।
२ किट्टीकरण - किट्टी का अर्थ कृश करना है । अतः जिस करण में पूर्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org