Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सप्ततिका प्रकरण
४१८.
स्पर्धकों और अपूर्व स्पर्धकों में से दलिकों को ले-लेकर प्रति समय अनन्त किट्टियां करता अर्थात् पूर्व स्पर्धकों और अपूर्व स्पर्धकों से वर्गणाओं को ग्रहण करके और उनके रस को अनन्तगुणा हीन करके रस के अविभाग प्रतिच्छेदों में अंतराल कर देता है। जैसे, मानलो रस के अविभाग प्रतिच्छेद, सौ, एक सौ एक और एक सौ दो थे, उन्हें घटा कर क्रम से पांच, पंद्रह और पच्चीस कर दिया, इसी का नाम किट्टीकरण है ।
किट्टीकरण काल के अन्तिम समय में अप्रत्याख्यानावरण लोभ, प्रत्याख्यानावरण लोभ का उपशम करता है तथा उसी समय संज्वलन लोभ का बंधविच्छेद होता है और बादर संज्वलन के उदय तथा उदीरणा के विच्छेद के साथ नौवें गुणस्थान का अंत हो जाता है। यहां तक मोहनीय की पच्चीस प्रकृतियाँ उपशांत हो जाती हैं । " अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण लोभ के उपशान्त हो जाने पर सत्ताईस प्रकृतियाँ उपशान्त हो जाती हैं। इसके बाद सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान होता है । इसका काल अन्तर्मुहूर्त है । इसके पहले समय में उपरितन स्थिति में से कुछ किट्टियों को लेकर सूक्ष्मसंपराय काल के बराबर उनकी प्रथम स्थिति करके वेदन करता है और एक समय कम दो आवलिका में बँधे हुए सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त शेष दलिकों का उपशम करता है ।
तदनन्तर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्तिम समय में संज्वलन लोभ का उपशम हो जाता है । इस प्रकार मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियां उपशान्त हो जाती हैं और उसी समय ज्ञानावरण की पांच,
१ अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक उपशांत प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है
सत्तट्ठ नव य पनरस सोलस अट्ठारसेव इगुवीसा । एगाहि दु चउवीसा पणवीसा बायरे जाण ॥
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