Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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इस प्रकार पिछली गाथा में उदय और उदीरणा में स्वामित्व की अपेक्षा जिन इकतालीस प्रकृतियों की विशेषता का निर्देश किया था। उन इकतालीस प्रकृतियों के नाम कारण सहित इस गाथा में बतलाये हैं कि इनकी उदीरणा क्यों नहीं होती है । अब आगे की गाथाओं में गुणस्थानों में प्रकृतियों के बंध को बतलाते हैं। गुणस्थानों में प्रकृतियों का बंध
तित्थगराहारगविरहियाओ अज्जेइ सव्वपगईओ। मिच्छत्तवेयगो सासणो वि इगवीससेसाओ ॥५६॥
शब्दार्थ-तित्यगराहारग-तीर्थकर नाम और आहारकद्विक, विरहियाओ- बिना, अज्जेइ - उपाजित, बंध करता है, सध्वपगईओ-- सभी प्रकृतियों का, भिच्छत्तवेयगो-मिथ्यादृष्टि, सासणो-सासादन गुणस्थान वाला, वि-भी, इगुयीस-उन्नीस, सेसाओ-शेष, बाकी
गाथार्थ-मिथ्याइष्टि जीव तीर्थंकर नाम और आहारकद्विक के बिना शेष सब प्रकृतियों का बंध करता है तथा सासादन गुणस्थान वाला उन्नीस प्रकृतियों के बिना शेष प्रकृतियों को बांधता है।
विशेषार्थ-गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन आदि चौदह हैं और ज्ञानावरण आदि आठ मूल कर्मों की उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं। उनमें से बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या १२० मानी गई है। बंध की अपेक्षा १२० प्रकृतियों के मानने का मतलब यह नहीं है कि शेष २८ प्रकृतियाँ छोड़ दी जाती हैं। लेकिन इसका कारण यह है कि पांच बंधन और पाँच संघातन, ये दस प्रकृतियाँ शरीर की अविनाभावी हैं, अतः जहाँ जिस शरीर का बंध होता है, वहाँ उस बंधन और संघातन का बंध अवश्य होता है। जिससे इन दस प्रकृतियों को अलग से नहीं गिनाया
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