Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सप्ततिका प्रकरण
___ अपूर्वक रण नामक आठवें गुणस्थान में अट्ठावन, छप्पन और छब्बीस प्रकृतियों का बंध होता है। प्रकृतियों की संख्या में भिन्नता का कारण यह है कि पूर्वोक्त ५६ प्रकृतियों में से देवायु के बंध का विच्छेद हो जाने पर अपूर्वकरण गुणस्थान वाला जीव पहले संख्यातवें भाग में ५८ प्रकृतियों का बंध करता है। अनन्तर निद्रा और प्रचला का बंधविच्छेद हो जाने पर संख्यात भाग के शेष रहने तक ५६ प्रकृतियों का बंध करता है और उसके बाद देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर, इन तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद हो जाने पर अंतिम भाग में २६ प्रकृतियों का बंध करता है। इसी का संकेत करने के लिये गाथा में निर्देश है कि-अट्टावण्णमपुवो छप्पण्णं वा वि छव्वीसं ।
इस प्रकार से आठवें गुणस्थान तक की बंध प्रकृतियों का कथन किया जा चुका है। अब आगे की गाथा में शेष रहे छह गुणस्थानों की बंध प्रकृतियों की संख्या को बतलाते हैं।
बावीसा एगणं बंधइ अट्ठारसंतमनियट्टी। सत्तर हुमसरागो सायममोहो सजोगि त्ति ॥५६॥
शब्दार्थ-बावीस-बाईस, एगणं-एक एक कम, बंधह-- बंध करता है, अट्ठारसंत---अठारह पर्यन्त, अनियट्टी-अनिवृत्तिबादर गुणस्थान वाला, सत्तर--सत्रह, सुहुमसरागो---सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान वाला, सायं-साता वेदनीय को, अमोहो---अमोही (उपशांतमोह, क्षीणमोह) सजोगि त्ति---सयोगिकेवली गुणस्थान तक ।
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