Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं, क्योंकि देव अपर्याप्त एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार नारक भी २३ प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं, क्योंकि नारकों के सामान्य से ही एकेन्द्रियों के योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं होता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि २३ प्रकृतिक बंधस्थान में देव और नारकों के उदयस्थान संबंधी भंग प्राप्त नहीं होते हैं तथा यहाँ ६२, ८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक ये पांच सत्तास्थान होते हैं । २१, २४, २५ और २६ प्रकृतिक इन चार उदयस्थानों में उक्त पाँचों ही सत्तास्थान होते हैं तथा २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, इन पांच उदयस्थानों में ७८ के बिना पूर्वोक्त चार-चार सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार यहाँ सब उदयस्थानों की अपेक्षा कुल ४० सत्तास्थान होते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि २५ प्रकृतिक उदयस्थान में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के ही होते हैं तथा २६ प्रकृतिक उदयस्थान में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के भी होता है और जो अग्निकायिक तथा वायुकायिक जीव मरकर विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, इनके भी कुछ काल तक होता है ।
२५ और २६ प्रकृतिक बंधस्थानों में भी पूर्वोक्त प्रकार कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि देव भी अपने सब उदयस्थानों में रहते हुए पर्याप्त एकेन्द्रिय के योग्य २५ और २६ प्रकृतिक स्थानों का बंध करता है। परन्तु इसके २५ प्रकृतिक बंधस्थान के बादर, पर्याप्त और प्रत्येक प्रायोग्य आठ ही भंग होते हैं, शेष १२ भंग नहीं होते हैं । क्योंकि देव सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्तकों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इससे उसके इनके योग्य प्रकृतियों का बंध भी नहीं होता है। पूर्वोक्त प्रकार से यहाँ भी चालीस-चालीस सत्तास्थान होते हैं।
२८ प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्या दृष्टि के ३० और ३१ प्रकृतिक, ये दो उदयस्थान होते हैं । इनमें से ३० प्रकृतिक उदयस्थान
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