Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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ग्रन्थकार ने जीवस्थान पद के अर्थ का बोध कराने के लिये गाथा में 'जीवसंखेवएसु' पद दिया है अर्थात् जिन अपर्याप्त एकेन्द्रियत्व आदि धर्मों के द्वारा जीव संक्षिप्त यानी संगृहीत किये जाते हैं, उनकी जीवसंक्षेप संज्ञा है - उन्हें जीवस्थान कहते हैं ।" इस प्रकार जीवसंक्षेप पद को जीवस्थान पद के अर्थ में स्वीकार किया गया है। एकेन्द्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त आदि जीवस्थानों के चौदह भेद चतुर्थ कर्मग्रन्थ में बतलाये जा चुके हैं ।
उक्त चौदह जीवस्थानों में से आदि के तेरह जीवस्थानों में ज्ञानावरण और अंतराय कर्म के तीन विकल्प हैं- 'नाणंतराय तिविगप्पो' । 1. इसका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है-
ज्ञानावरण और अंतराय कर्म की पांच-पांच उत्तर प्रकृतियां हैं और वे सब प्रकृतियां ध्रुवबंधिनी, ध्रुवोदया और ध्रुवसत्ताक हैं । क्योंकि इन दोनों कर्मों की उत्तर प्रकृतियों का अपने-अपने विच्छेद के अन्तिम समय तक बंध, उदय और सत्त्व निरन्तर बना रहता है । अतः आदि के तेरह जीवस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म की उत्तर प्रकृतियों का पांच प्रकृतिक बंध, पांच प्रकृतिक उदय और पांच प्रकृतिक सत्ता, इन तीन विकल्प रूप एक भंग पाया जाता है । क्योंकि इन जीवस्थानों में से किसी भी जीवस्थान में इनके बंध, उदय और सत्ता का विच्छेद नहीं पाया जाता है ।
अन्तिम चौदहवें पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म का बंधविच्छेद पहले होता है और उसके बाद उदय तथा सत्ता का विच्छेद होता है । अतः यहां पांच प्रकृतिक बंध,
१ संक्षिप्यन्ते - संगृह्यन्ते जीवा एभिरिति संक्षेपा:-- अपर्याप्त कै केन्द्रियत्वादयोsवान्तरजातिभेदाः, जीवानां संक्षेपा जीवसंक्षेपा: जीवस्थानानीत्यर्थः ।
--सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १६५
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