Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सप्ततिका प्रकरण में अपर्याप्त नाम कर्म का उदय नहीं होता है तथा इनके परभव संबंधी मनुष्यायु तथा तिर्यंचायु का ही बन्ध होता है, अतः इनके मनुष्यगति की अपेक्षा ५ और तिर्यंचगति की अपेक्षा ५ भंग, इस प्रकार कुल दस भंग होते हैं। जैसे कि तिर्यंचगति की अपेक्षा १. आयुबंध के पहले तिर्यचायु का उदय और तिर्यंचायु की सत्ता २. आयुबंध के समय तिर्यंचायु का बंध, तिर्यंचायु का उदय और तिर्यंच-तिर्यंचायु की सत्ता अथवा ३. मनुष्यायु का बंध, तिर्यंचायु का उदय और मनुष्य-तिर्यंचायु की सत्ता, ४. बंध की उपरति होने पर तिर्यंचायु का उदय और तिर्यंच-तिर्यंचायु की सत्ता अथवा ५. तिर्यंचायु का उदय और मनुष्य-तिर्यंचायु की सत्ता । कुल मिलाकर ये पाँच भंग हुए।
इसी प्रकार मनुष्यगति की अपेक्षा भी पाँच भंग समझना चाहिये, लेकिन तिर्यंचायु के स्थान पर मनुष्यायु को रखें। जैसे कि आयु बंध के पहले मनुष्यायु का उदय और मनुष्यायु की सत्ता आदि ।
पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव तिर्यंच ही होता है और उसके चारों आयुओं का बंध सम्भव है, अत: यहाँ आयु के वे ही नौ भंग होते हैं जो सामान्य तिर्यंचों के बतलाये हैं।
इस प्रकार से तीन जीवस्थानों में आयुकर्म के भंगों को बतलाने के बाद शेष रहे ग्यारह जीवस्थानों के भंगों के बारे में कहते हैं कि उनमें से प्रत्येक में पाँच-पाँच भंग होते हैं। क्योंकि शेष ग्यारह जीवस्थानों के जीव तिर्यंच ही होते हैं और उनके देवायु व नरकायु का बंध नहीं होता है, अतः संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त तिर्यंचों के जो पाँच भंग बतलाये हैं, वे ही यहाँ जानना चाहिये कि बंधकाल से पूर्व का एक भंग, बंधकाल के समय के दो भंग और उपरत बंधकाल के दो भंग । इस प्रकार शेष ग्यारह जीवस्थानों में पांच भंग होते हैं।
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