Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
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तथा देव और नारकों में प्रत्येक के तिर्यंचायु का बन्ध नहीं होने से एक-एक भंग, इस प्रकार कुल आठ भेद हुए । जिनको पूर्वोक्त २८ भंगों में से कम करने पर २० भंग होते हैं ।
देशविरत गुणस्थान में १२ भंग होते हैं। क्योंकि देशविरति तिर्यंच और मनुष्यों के होती है और यदि वे परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध करते हैं तो देवायु का ही बन्ध करते हैं अन्य आयु का नहीं । देशविरता आयुर्बध्नन्तो देवायुरेव बध्नन्ति न शेषमायुः । अतः इनके आयुबन्ध के पहले एक-एक ही भंग होता है और आयुबन्ध के काल में भी एक-एक भंग ही होता है। इस प्रकार तिथंच और मनुष्यों, दोनों को मिलाकर कुल चार भंग हुए तथा उपरत बंध की अपेक्षा तिर्यंचों के भी चार भंग होते हैं और मनुष्यों के भी चार भंग । क्योंकि चारों गति सम्बन्धी आयु का बन्ध करने के पश्चात तिर्यंच और मनुष्यों के देशविरति गुणस्थान के प्राप्त होने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है । इस प्रकार उपरत बंध की अपेक्षा तिर्यंचों के चार और मनुष्यों के चार, जो कुल मिलाकर आठ भङ्ग हैं। इनमें पूर्वोक्त चार भङ्गों को मिलाने पर देशविरत गुणस्थान में कुल बारह भङ्ग हो जाते हैं ।
'छ होसु' - अर्थात् पांचवें गुणस्थान के बाद के प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, इन दो गुणस्थानों में छह भङ्ग होते हैं । इसका कारण यह है कि ये दोनों गुणस्थान मनुष्यों के ही होते हैं । और ये देवायु को ही बांधते हैं । अतः इनके आयु बन्ध के पहले एक भङ्ग और आयुबन्ध काल में भी एक भङ्ग होता है । किन्तु उपरत बन्ध की अपेक्षा यहाँ चार भङ्ग होते हैं, क्योंकि चारों गति सम्बन्धी आयुबन्ध के पश्चात प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं है । इस प्रकार आयुबन्ध के पूर्व का एक, आयु बन्ध के समय का एक और उपरत बन्ध काल के चार भङ्गों को मिलाने से प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, इन दोनों गुणस्थानों में छह भङ्ग प्राप्त होते हैं ।
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