Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
षष्ठ कर्मग्रन्थ
२५६
उपशमश्रेणि या क्षपकश्रेणि वाले के दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंत में दर्शनावरण कर्म का बंधविच्छेद हो जाता है। इसलिये आगे ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में बंध की अपेक्षा दर्शनावरण के भंग प्राप्त नहीं होते हैं । अतः उपशांतमोह गुणस्थान में जो उपशमश्रेणि का गुणस्थान है, उदय और सत्ता तो दसवें गुणस्थान के समान बनी रहती है किन्तु बंध नहीं होने से - 'उवसंते चउपण नव' -- चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता तथा पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता, यह दो भङ्ग प्राप्त होते हैं ।
क्षीणमोह गुणस्थान में - ' खीणे चउरुदय छच्च चउसंत'-- चार का उदय और छह या चार की सत्ता होती है । इसका कारण यह है कि बारहवां क्षीणमोह गुणस्थान क्षपकश्रेणि का है और क्षपक श्रेणि में निद्रा या प्रचला का उदय नहीं होने से चार प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है तथा छह या चार प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं । क्योंकि जब क्षीणमोह गुणस्थान में निद्रा और प्रचला का उदय ही नहीं होता है तब क्षीणमोह गुणस्थान के अंतिम समय में इनकी सत्ता भी प्राप्त नहीं हो सकती है और नियमानुसार अनुदय प्रकृतियाँ जो होती हैं, उनका प्रत्येक निषेक स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा सजातीय उदयवती प्रकृतियों में परिणम जाता है, जिससे क्षीणमोह गुणस्थान के अंतिम समय में निद्रा और प्रचला की सत्ता न रहकर केवल चक्षुर्दर्शनावरण आदि चार की ही सत्ता रहेगी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि क्षीणमोह गुणस्थान में जो चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्ता तथा चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता, इन दो भङ्गों में से पहला भङ्ग चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्ता का क्षीणमोह गुणस्थान के उपान्त्य समय तक जानना चाहिये और अंतिम समय में चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org