Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सप्ततिका प्रकरण
चाहिये कि यहाँ तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी और द्वीन्द्रिय के स्थान पर मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और पंचेन्द्रिय कहना चाहिये ।
उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान तीन प्रकार का है—एक मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से, दूसरा सासादन सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से और तीसरा सम्यग्मिथ्यादृष्टि या अविरत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से । इनमें से मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि के तिर्यंचप्रायोग्य उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान बताया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिये, किन्तु यहाँ तिर्यंचगतिप्रायोग्य प्रकृतियों के बदले मनुष्यगति के योग्य प्रकृतियों को मिला देना चाहिये ।
तीसरे प्रकार के उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में - मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, पचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रऋषभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिर में से कोई एक शुभ और अशुभ में से कोई एक, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति और अयशःकीर्ति में से कोई एक तथा निर्माण, इन उनतीस प्रकृतियों का बंध होता है । इन तीनों प्रकार के उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में सामान्य से ४६०८ भंग होते हैं । यद्यपि गुणस्थान के भेद से यहाँ भंगों में भेद हो जाता है, किन्तु गुणस्थान भेद की विवक्षा न करके यहाँ ४६०८ भंग कहे गये हैं ।
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उक्त उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में तीर्थंकर नाम को मिला देने पर तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है । इस बंधस्थान में स्थिर और
१ एकोनत्रिंशत् त्रिधा -- एका मिथ्यादृष्टीन् बंधकानाश्रित्य वेदितव्या, द्वितीया सासादनान, तृतीया सम्यग्मिथ्यादृष्टीन् अविरतसम्यग्दृष्टीन् वा ।
- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७८
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