Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सप्ततिका प्रकरण
शब्दार्थ - बंधोदय संतंसा - बंध, उदय और सत्ता रूप अंश, नाणावरणंतराइए - ज्ञानावरण और अंतराय कर्म में, पंच – पाँच, बंधोवरमे - बंध के अभाव में, विभी, तहा —— तथा, उदसंताउदय और सत्ता, हुति — होती है, पंचेव— पाँच की।
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गाथार्थ -- ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म में बंध, उदय और सत्ता रूप अंश पाँच प्रकृतियों के होते हैं । बंध के अभाव में भी उदय और सत्ता पाँच प्रकृत्यात्मक ही होती है ।
विशेषार्थ - पूर्व में मूल प्रकृतियों के सामान्य तथा जीवस्थान व गुणस्थानों की अपेक्षा संवेध भंगों को बतलाया गया है । अब इस गाथा से उन मूल कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के संवेध भंगों का कथन प्रारम्भ करते हैं ।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय यह आठ मूल कर्मप्रकृतियाँ हैं । इनके क्रमशः पाँच, नौ, दो, अठाईस, चार, ब्यालीस, दो और पांच भेद होते हैं । जो उन मूल कर्मप्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियाँ कहलाती हैं । इनके नाम आदि का विवेचन प्रथम कर्मग्रन्थ में किया गया है ।
इस गाथा में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के भंगों को बतलाया है ।
ज्ञानावरण की पांचों उत्तर प्रकृतियाँ तथा अन्तराय की पांचों उत्तर प्रकृतियां कुल मिलाकर इन दस प्रकृतियों का बंध दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक होता है तथा इनका बंध-विच्छेद दसवें गुणस्थान के अंत में तथा उदय व सत्ता का विच्छेद बारहवें गुणस्थान में अन्त में होता है ।
ज्ञानावरण और अंतराय कर्म की पाँच पाँच प्रकृति रूप बंध, उदय और सत्व सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान पर्यन्त है और बंध का अभाव होने पर भी उन दोनों की उपशान्तमोह में और क्षीणमोह में उदय तथा सत्व रूप प्रकृतियाँ पाँच-पाँच ही हैं ।
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