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जैन कथा साहित्य का स्वरूप एवं विकास
जैन कवियों एवं विद्वानों ने कथा ग्रंथों के लिखने में पूणं रुचि ली है । इन कथा ग्रंथों का मुख्य उद्देश्य सामान्यतः किसी पुरुष-स्त्री का चरित्र संक्षेप में चरित कर उसके सांसरिक सुख-दुखों का कारण उसके स्वयं कृत पाप-पुण्य के परिणाम को प्रकट करना है। धर्मोपदेश के निमित्त लघु कथाओं का निर्माण श्रमरण-परम्परा में बहुत ही प्राचीन काल से रहा है । इसके अतिरिक्त कथाकारों का मुख्य उद्देश्य जगत् के प्राणियों को कल्याण मार्ग को और प्रेरित करने का रहा है। लघु कथाओं के स्वाध्याय में साधु एवं गृहस्थ दोनों ही विशेष रूचि लेते हैं और वे उन्हें अच्छी तरह से हृदयस्थ कर लेते है । इसीलिये लघु एवं वृहद् दोनों ही प्रकार के कथा कव्य हमें प्राकृत, संस्कृत, अपना एवं हिन्दी भाषा में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं । कथाओं के मुख्य विषय का वर्णन करने का ढंग प्राय: इन सभी भाषाओं में एकसा रहा है ।
जैन कथा साहित्य को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं । (१) व्रत कथा साहित्य -
एक प्रकार की कथायें व्रतों के माहात्म्य प्रतिपादित करने के लिये लिखी जाती रही हैं। मे प्रायः लघु कथाओं के रूप में मिलती हैं जिनमें किसी एक घटना को लेकर किसी पात्र विशेष के जीवन का उत्थान अथवा पतन दिखाया जाता रहा है। कथा के मध्य में किसी संकट अथवा व्याधि विशेष के निवारणार्थं व्रत को पालन करने का उपदेश दिया जाता है। व्रत को निचिन समाप्ति पर उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और तब उसके जीवन को उदा
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