Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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21/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार प्रागवाट (पोरवाल) जैन कहलाये तथा जिन श्रेष्ठी परिवारों को रत्न- प्रभसूरी आठवीं शताब्दी में ओसियां ले गये वे ओसवाल कहलाये। वास्तव में इन दोनों में कोई अंतर नहीं है। रत्नप्रभसूरि के गुरु की पीढ़ी में ही उदयप्रभसूरी थे; जिन्होंने श्रीमालनगर में प्रागवाट या पोरवाल जैन बनवाये थे।
श्वेताम्बर संघ में खरतरगच्छ का प्रारम्भ 1060 में हुआ जिन्होंने चैत्यवासी साधुओं को हरा दिया। उनके साहसिक चरित्र के लिये उन्हें यह पदवी दी गई। फिर 1289 में उग्र तपस्या करने वाले साधुओं का अलग गच्छ 'तपागच्छ’ बना। तदुपरांत त्रिस्तुति संघ अलग बना। इसी तरह आंचलगच्छ एवं लोकागच्छ और बने। आंचलगच्छ का तात्पर्य है शुद्ध धार्मिक विधि की रक्षा करना। इनके अनुयायी मुंह पर मुंहपती की जगह कपड़े पर आंचल टुकड़ा रखते है। (आंचल में)। त्रिस्तुति में श्री राजेन्द्रसूरी ज्ञानदर्शन चरित्र की अनुपम त्रिवेणी हुए हैं; जिनका “राजेन्द्र अभियान विश्वकोष" जैन जगत के लिये जैन साहित्य की अनुपम देन है। वर्तमान में इस मत के विद्वान जयंतसेनसूरी एवं शांत सरल आचार्य श्री रवीन्द्रसूरी हैं। ___लोंका साधु नहीं बने। वे गृहस्थ उपदेशक ही थे लेकिन उनके कई शिष्य मुनि बन गये जो बाद में स्थानकवासी कहलाये। हालांकि स्थानकवासी मानते हैं कि लोंकाजी ने दीक्षा ली थी। लोकाशाह ने मूर्तिपूजा का विरोध किया यह जानकर कि जैन धर्म-ग्रंथों में इसका उल्लेख नहीं। पर यह सत्य नहीं है। मूर्तिपूजा जैन धर्म में लम्बे समय से प्रचलित है। शुभिंग के अनुसार जैन शास्त्रों में मूर्तियों का प्रसंग आता है। उदाहरणार्थ उन्होंने "रणायधम्म कहाओ' 210 बी रायपसैनज 87 बी 64 (चौथा) आदि का उल्लेख किया है। स्थानकवासी आचार्य धर्मदास जी हुए। उन्होंने अपने 22. विद्वान शिष्यों के दल बनाये, तब से 22 सम्प्रदाय कलाया। यह सम्प्रदाय मंदिर मार्गी नहीं है लेकिन महान संत इस सम्प्रदाय में भी हुए। हाल में इतिहासज्ञ त्यागी आचार्य