Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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73/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
गर्भधारण पर माँ को पुनीत चौदह स्वप्न आते हैं। तीनों लोकों उर्ध्व, मध्य एवं अधोलोक में उद्योत होता है, उनके जन्म कल्याणक चौसठ इन्द्रों एवं कोटि देव देवांगनाओं द्वारा परम उल्लासपूर्वक मनाया जाता है। चारों प्रकार के देवताओं को घंटी की आवाज से सूचना हो जाती है। सौधर्मेन्द्र अपने वैभव के साथ ऐरावत हाथी पर बैठकर आता है। इन्द्र हजारों नेत्रों से दर्शन करते हैं। कोटि देवांगनाएँ नृत्य करती हैं। मार्गशिला पर पाण्डुक वन में एरावत हाथी पर बालक को बिठाया जाता है। सुमेरू पर्वत पर ले जाया जाता है। स्नानाभिषेक में कुल ढाई सौ (250) अभिषेक क्षरीसमुद्र के पानी से होते हैं। उनके लिए कलश बहुत बड़े होते हैं,
सामान्य मनुष्य उनकी कल्पना भी नहीं कर सकता। • सौधर्मेन्द्र इन्द्र द्वारा सशंकित होने पर कि इतने द्रव-प्रवाह
को शिशु भगवान कैसे सह सकेंगे, प्रभु द्वारा जरा सा अंगुष्ठ दबाने पर सुमेरू पर्वत कम्पायमान हो जाता है। इन्द्र आश्वस्त हो जाते हैं। तीर्थंकर के बल की कल्पना इस प्रकार करें कि एक चक्रवर्ती सारे भरत-खण्ड का राजा होता है। अनेक चक्रवर्ती एक देवतुल्य । अनेक देव एक इन्द्र तुल्य और अनेक इन्द्र तीर्थंकर तुल्य होते हैं। यह उनकी आत्मशक्ति का प्रमाण है। तीर्थंकर जिन्हें जन्म से मति, श्रुति, अवधिज्ञान होता है, 'सयं संबुद्धाणं', स्वदीक्षित होते हैं। सभी चौथा ज्ञान दीक्षा के समय और हो जाता है। केवल पुण्य तत्व का सेवन करते हैं। कर्म निर्जरा करते हैं। प्राणी मात्र के लिए परम उपकारी
विश्व हितकारी जीव होते हैं। 12. तीर्थंकर जो गुणातीत हैं, उनके विशिष्ट बारह गुण कहे गये
हैं, जो 'अतिशय' उत्कृष्ट कहलाते हैं यानी कोई आश्चर्य नहीं ऐसी भव्य आत्माओं के लिए विशिष्ट योग द्वारा उत्कृष्टताएँ सुलभ होती हैं, शरीर निरोग हो, केश नख, न
तीर्थकर जिन्दाक्षित होते हल पुण्य तत्व परम उपद