Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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123/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
प्रथम तीर्थकर दादा ऋषभदेव के लिए अर्पित है- "आदिम पृथ्वीनाथ, मादिमं निष्परिग्रहम् आदिम तीर्थनाथंच ऋषभ स्वामिनं स्तुवः ।" अवसर्पिणी काल में ऋषभ देव प्रथम नृपति, प्रथम अपरिग्रही एवं प्रथम तीर्थकर हुए हैं, जिन्हें वंदन करते हैं। इसी तरह विश्व जन समुदाय रूपी कमलों को विकसित करने में अजितनाथ प्रभु , भास्कर तुल्य हैं। 'अनेकांत मताम्बोधि समुल्लासम चन्द्रमा, दधादमन्दमानंदं भगवान अभिनंदनः ।' अनेकांत रूपी समुद्र को उल्लासित करने में अभिनन्दन स्वामी चन्द्रमा के समान हैं।
"चन्द्रप्रभ प्रमोश्चन्द्र मरीचिनिचयोज्जवला। मूर्ति प॑तिसितध्यान निर्मितेव श्रियेऽस्तुवः।। (10)
चन्द्रप्रभु स्वामि की मूर्ति, चन्द्रमा की शीतल किरणों के सामान उज्ज्वल, मानो शुक्लध्यान से ही बनी हो, तुम्हारी आत्म लक्ष्मी की वृद्धि करे।
__सत्वानां परमानन्द कंदोद् भेदन वाम्बुद : | स्याद्वादमृत निःस्यन्दी, शीतलःपातुवोजिनः।। (12)
स्याद्वादरूपी अमृत की वर्षा करने वाले परमानन्द रूपी अंकुर को स्थापन करने में नव मेघ तुल्य प्रभु शीतलनाथ को वंदन करता हूँ।
भवरोगाऽऽर्तजन्तूनः मगदंकार दर्शनं (13) भवरूपी रोग को मिटाने में कुशल वैद्य समान श्रेयांस नाथ आपका श्रेय करें। अनंतनाथ प्रभु के हृदय में स्वयंम्भूरमण समुद्र की अनंत करूणा है। धर्मनाथ प्रभु कल्पवृक्ष के समान हैं। शांतिनाथ प्रभु अमृत के समान निर्मल देशना से दिशाओं के मुख उज्ज्वल करते हैं। श्री कुंथुनाथ प्रभु चौबीस अतिशय युक्त हैं, सुर असुर नरों के कल्याणकारी नाथ हैं।
सूरासुर नराधीश मयूरनव वारिदम् । कर्मदूसमूलने हस्ति मळं मळीमभिष्टुम।। (21)