Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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211/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
in running brooks and sermons in stones", उपलब्ध हैं। कुछ व्यक्तिगत उल्लेख, सामान्य व्यक्तित्व विकास, जो छात्रों के लिए हितकर हो, उस उद्देश्य से सत्य कथन रूप में ही किया गया है फिर भी क्षम्य हूँ। मैं निश्चित रूप से मानता हूँ जैसे कृत कार्य का फल निश्चित है उसी प्रकार विनय वान को ही विद्या नसीब हो सकती है। - प्रभु महावीर ने कहा है इन निम्न कारणों से विद्या नहीं आती, - "थम्भा, कोह, पमाएणं, रोगेणाऽलस्स एण"- अर्थात अभिमान, क्रोध, प्रमाद (करने योग्य न करना एवं अकरणीय को करना) रोग एवं आलस्य । वास्तव में एक अभिमान से शनैः शनैः शेष सभी अवगुण आ जाते हैं। हमारी तुच्छता हमें अभिमानी बनावे तब महापुरूषों की उपलब्धियों को निहारें, ताकि हम विनम्र बन सकें। __इस विनम्रता के गुण के आधार पर ही हम अधिक ज्ञानी, व्यापक दृष्टिकोण वाले, उदार-हृदयी, प्रजातांत्रिक बन, धर्मान्धता, कट्टरता, अंधविश्वास, स्वेच्छा-चारिता, हिंसा, बर्बरता, भ्रष्टाचार और नैतिक पतन के अभिशाप से मुक्त हो सकेंगे।
गुण-ग्राही बनने की भावना इसका आधार है। अन्यथा दम्भी, अज्ञानी तालिबान बनेंगे जिन्होंने हजारों वर्ष पुरानी संसार की अनुपम कलाकृतियों एवं शांति की धरोहर बुद्ध-प्रतिमाओं का तथा विश्व-व्यापार-केन्द्र का विस्फोट कर अन्ततः स्वयं अफगानिस्तान का विनाश करवाया। ___ अंत में उचित वातावरण से संस्कार निर्माण से भिन्न आचार्य रजनीश का यह कथन भी नकारा नहीं जा सकता कि, "कोई पिता, गुरुजन या महाजन किसी पुत्र, छात्र या संरक्षण प्राप्त व्यक्ति को अपनी प्रतिकृति (image) में ढालने की भूल न करें क्योंकि हर जीव एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है, उसे अपना सत्य स्वयं खोजना है"। गुरुदेव टेगौर के शब्दों में, "The traveller has to knock at every alien door to reach his own". गुरुजन, शुभचिंतक, केवल साक्षी भाव से अर्थात बिना राग, द्वैष क्षोभ के, उसे पथ दिखा सकते हैं। यात्रा उसे स्वयं करनी है।