Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar

Previous | Next

Page 267
________________ 257/ जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार प्रकार के पक्षी एवं जीवों का विकास होते हुये प्राईमेट 4 करोड वर्ष पूर्व आये जो मानव एवं बन्दरों के पूर्वज थे। वर्तमान मनुष्य (होमोसेपियन) लगभग 20 लाख वर्ष से वर्तमान स्वरूप में विकसित हुआ । मानव सभ्यता का लिखित रिकॉर्ड लगभग मात्र 7000/8000 वर्ष पुराना है । डार्विन की खोज एवं जैन दर्शन में निगोद से एकेन्द्रिय बेइन्द्रिय इत्यादि से कर्म निर्जरा के फलस्वरूप मनुष्य जाति में जन्म भी लगभग अकल्पनीय वर्षों की दीर्घ अवधि में ही संभव है। वास्तव में यही यात्रा एक रूप से अनंत काल की यात्रा है। जैसे जैन दर्शन में भी कहा गया है। खेद है विज्ञान जब दीर्घ अवधि तक यानी लगभग 100-200 वर्ष पूर्व तक भी वनस्पति में भी जीव नहीं मानता था, एवं हाल की खोज से विज्ञान को विदित हुआ कि पेड़ पोधों में भी जीव है, जो अपना खाद्य जड़ों सें खींचकर पत्तों तक पहुंचाते हैं और हरे पत्ते सूर्य की रोशनी में Photosynthesis प्रक्रिया से अवशोषित पदार्थों का पाचन करते हैं और बदले में ऑक्सीजन का उत्सर्जन करते हैं। यहाँ से वनस्पति में भी जीव बनता है । कहते हैं एलगी समुद्री काई हरित एक कोशीय वनस्पतिकाय से ऑक्सीजन का सर्वप्रथम प्रादुर्भाव हुआ । अब विज्ञान पौधों एवं अन्य जीवधारियों में जीवन को मानता है। जीव विकास की इस कड़ी में हमने वर्गणाओं में आहार - वर्गणा, मन-वर्गणा, श्वासोच्छवास - वर्गणा, तैजस-वर्गणा आदि का वर्णन किया है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण मनो-वर्गणा है। मस्तिष्क के विकास की मनुष्य के लिए विशेष महत्ता है। विज्ञान के अनुसार भी किस तरह लगभग 4 करोड़ वर्ष पूर्व बन्दरों (ape ) एवं मनुष्यों के एक ही पूर्वज थे लेकिन दो भागों में धीरे-धीरे विभाजित होते हुए एक शाखा ने जंगलों से बाहर रहना शुरू कर शनैः शनैः आज के Homosapien वर्तमान मनुष्य की तरह सीधे लम्बवतः चलने वाले इंसान बनें। जिनका दिमाग विकसित था। मनुष्य की लाखों लाखों कोशिकाओं में डी. एन.ए. के साथ 'जीव - तत्व भी है। हाल ही नोबल पुरस्कार

Loading...

Page Navigation
1 ... 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294