Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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जैन दर्शन एवं आधुनिक विज्ञान/254
विस्तार से इस लेख में विज्ञान की रोशनी में इसका उल्लेख करेंगे। __ जैन दर्शन में निगोद की धारणा है जो इस तरह विज्ञान की खोज से काफी मिलती जुलती है। भू–मण्डल पर एक कोशीय जीव विकास होने की कहानी उतनी ही पुरानी है जो समुद्र एवं पृथ्वी के अवशेषों (Fossils) से प्राप्त होती है। ऐसे जीवों को भी जैन दर्शन में निगोद के सूक्ष्तम जीव माना है। जीव कर्माधीन होने के कारण इन्हीं सूक्ष्मतम जीव के रूप में परमाणु, एक श्वास क्रिया में अनेक बार जन्मते हैं, मरते हैं ।यह क्रम अनंत काल तक अर्थात् करोड़ों वर्ष चलता रहा है। फिर जीव निगोद से वनस्पति अवस्था में आता है, जिससे एकेन्द्रिय जीव-पृथ्वीकाय, अग्निकाय, वायुकाय, स्थावर के रूप में बनते हैं।यही नहीं, तत्पश्चात् त्रस जीव-वनस्पतिकाय के या अन्य सूक्ष्म कोशीय जीव के रूप में जैसे वाइरस, बैक्टीरिया, माईक्रोब से अधिक कोशीय बनने में और करोड़ों-करोड़ों वर्ष लग जाते हैं और वहाँ की यातनाएँ अकाम निर्जरा के रूप में भोगकर जीव उच्च-उच्चतर श्रेणी तक पहुंचता है। जिससे बेइन्द्रीय लट्, कृमि, घुण, सींप-शंख, तेईन्द्रिय जैसे चिंटी, जूं, लीख, चतुरिन्द्रिय-मक्खी, मच्छर, बिच्छु तक पहुंचता
इसी क्रम में कर्म निर्जरा उत्तरोतर होने पर, पंचेन्द्रिय जीव राशि को प्राप्त करता है। इस प्रकार सृष्टि में विविध जातियों के पशु-पक्षी आदि अपने पुण्योपार्जन के अनुसार बनते हैं। पंचेन्द्रिय में भी संज्ञी (मन) या असंज्ञी, सम्मूर्छिम मनुष्य होते हैं, जैसे स्वेद या वीर्य में रहे शुक्राणु जो एक भोग में लाखों करोड़ों की संख्या में (एक दो छोड़कर) मर जाते हैं। जीव कर्माधीन होने से लाखों भव पाकर मनुष्य भव, उत्तम कुल, धर्म में श्रद्धा एवं चारित्र पालन पर कर्मों का उपशम, क्षयोपशय कर पाता है। जीव के विकास की कहानी परमाणु सम भौतिक एवं जीव द्रव्य के योग से शुरू होती है। अनन्त काल में उत्तरोत्तर बढते-बढ़ते मनुष्य की योनि प्राप्त