Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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141/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
नरकवासी जीव दीर्घ-दीर्घ काल तक असहनीय एवं अनेक प्रकार से दुख दर्द से पीड़ित रहते हैं एवं अपने शरीर को भी अपने ढंग से परिवर्तित करते है लेकिन कुछ शैतान देव उन्हें और परेशान करते हैं। कष्ट अंतहीन सा हो जाता है। सात प्रकार के नरक बताए हैं। चौथे अध्याय में भवन-पतिदेव, व्यंतरदेव ज्योतिषिदेव एवं वैमानिक देव है इनमें और कई भेद बताए गए हैं। मूल बात यह है ज्यों-ज्यों देवता उच्च श्रेणी में आते हैं उनमे घूमने, परिग्रह, शरीर की ऊँचाई, कामना एवं अभिमान आदि सब कम हो जाते हैं। 'गति शीर परिग्रहाभिमनतों हीनाः' (4:22) | __पांचवे पाठ में षट् द्रव्यों का वर्णन है जो जीव, अजीव धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय एवं काल हैं। ये सदा से हैं एवं सदा रहेंगे। इनमें परिणमन कुछ परिवर्तन होते हैं लेकिन मूल स्वभाव में सदा अवस्थित हैं अपरिवर्तनीय हैं, 'गुणपर्याय वदद्रव्यम तद्भाव परिणाम । (5:32) ____आधुनिक भौतिक विज्ञान भी सिवाय आत्मा के इन भौतिक द्रव्यों को सृष्टि के प्रारम्भ से मूल द्रव्यों के रूप में लगभग मानता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के सम्बन्ध में शुद्ध उसी स्वरूप में न मानते हुए भी मोटे रूप में उन शक्तियों के रूप में मानते हैं जो कि स्थिति तत्व हैं एवं गति तत्व हैं। जो चलने में सहायक
__ब्रह्माण्ड, आकाश, अन्तरिक्ष जो अनंत और विस्तृत हो रहा है उसमें चार प्रतिशत पुद्गल तथा 20 प्रतिशत डार्क मेटर एवं डार्क एनर्जी, 74 प्रतिशत शक्तियाँ मानी गई हैं , जो कि विश्व को व्यापक बनाने एवं चलायमान करने में सहयाक मानी जाती हैं। पुद्गल का भी विश्व पर उपकार है जो न केवल समस्त निहारिकाएँ, तारे, सौरमण्डल एवं पृथ्वी बनते है वरन् हमें शरीर, वाणी, मन और प्राण तक प्रदान करते हैं। सुख-दुख, जन्म, मरण, प्रदान कराते हैं। यही नहीं सारे जीव, समस्त विश्व, एक दूसरे पर आश्रित हो परस्पर एक दूसरे के लिए वे संबल हैं।