Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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कर्मबन्धन के कारण एवं क्षय तत्वार्थ के आलोक में/156
this varied world. It promotes kindness, forgiveness and tolerance, the positive virtues. जगत काय स्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम्
(7.7, तत्वार्थ सूत्र) अर्थ:- संवेग (संसार का भय) और वैराग्य(राग-द्वेष का अभाव) के लिए क्रमशः संसार और शरीर के स्वभाव का चिंतन करें। “संवेग" विकास के लिए जगत की एवं स्व की सही प्रकृति एवं कार्यों का चिन्तन जरूरी है। संसार स्वार्थी है, क्षुद्र है, क्षणिक है, इसमें हिंसा, प्रतिहिंसा, वैर, वैमनस्य व्याप्त है। इनसे छुटकारा संवेग भावना है।
Jagat kāyā svabhāvāh ca samvega vairāgyārtham(7.7, Tattavarth Sutra) MEANING :- One of the tests of enlightened world view is developing distaste for world and its ways, by reflecting its true nature, which makes evident that the world is selfish, ephemeral, and full of violence and enmity. Delving on true nature of world, one would develop distaste and disgust for one's misdeeds.
मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः
(8:1, तत्वार्थ सूत्र) अर्थः- बन्ध के कारण पाँच हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति,प्रमाद, कषाय एवं योग। तत्वों की श्रद्धा के विपरीत अवस्था को, मिथ्यादर्शन कहते हैं ,जो गृहीत एवं अगृहीत होता है। गृहीत यानी नैसर्गिक अर्थात् जो जीव के साथ अनादिकाल से लगा है। कषाय और योग इनमें प्रमुखतम हैं क्योंकि कषाय में अविरति एवं प्रमाद शामिल हैं। मिथ्यादर्शन में (1) एकांतवाद (2) सर्वथा विपरीतवाद