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कर्मबन्धन के कारण एवं क्षय तत्वार्थ के आलोक में/176
भक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावना प्रवचनवात्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य
(6.23) अर्थः- दर्शन की प्रकर्ष विशुद्धि, विनयगुण की पूर्णता, शील एवं व्रतों की सम्पन्नता यानी उनका अतिचार रहित पालन, निरन्तर ज्ञानाभ्यास, संसारिक बंधनों से भय, शक्ति अनुसार दान और तप, शक्ति न छिपाते हुए साधु एवं संघ की समाधि यानी उसके तप की रक्षा करना, शांति बनाये रखना, सेवा अरिहंत भक्ति, आचार्य, बहुश्रत भक्ति, प्रवचन भक्ति, आवश्यकों का पालन प्रभावना एवं प्रवचन वत्सलता। ये सोलह भावनाऐं तीर्थकर प्रकृति के आस्रव हैं।
darsanavisuddhir vinaysampannatā silvratesvanticarobhiksnamgyāno
payogsamvegou saktitas
tyagopsai sangh sādhu samadhi vaiyāvratya
karanam ārhad ācārya
bahusruta pravacan bhakti rāvsyaka pari hānirmārga prabhavaná pravacanavatsal samiti
tirthkratvasya
(6.23, Tattavarth Sutra) MEANING:- These virutes result in culmination of binding Tirthankar Gotra by (1) getting world. view of englightened faith, (2) humility par excellence, (3) abstinence without transgressions, (4) relentless pursuit of right knowledge, (5) dread of wordly existence, (6)charity, (7) without mincing one's capacity undertaking