Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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सुसंस्कार अनेकान्त दृष्टि से/208
व्यक्ति को अच्छा वातावरण मिलने पर भी उसके जन्मजात संस्कार उस पर हावी हो जाने का अंदेशा रहता है। जरा सा ऐसा मौका मिलते ही सब कुछ मटिया मेट हो सकता है।
मनोविज्ञान, आनुवांशिकता को, या प्राणी शास्त्र अंतः स्त्रावी ग्रंथियों की क्रियाओं को, इनका कारण मानकर इति श्री कर लेता है, जबकि जैन दर्शन इससे अधिक जड़ तक जाता है। क्यों कोई व्यक्ति या कोई जीव निर्बुद्धि, अज्ञानी, अधर्मी, पापी, कुबुद्धि, अल्पबुद्धि होता है या इसके विपरीत सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चरित्र युक्त होता है। जैन दर्शन का स्पष्टीकरण है- ज्ञाना वरणीय कर्म बन्धन करने से यानी पूर्व भव या इस भव में गुरुजन, ज्ञान एवं उसके साधनों की अवज्ञा या विराघना करने, करवाने या अनुमोदन करने से ऐसे कर्म बन्धन कर, वह उसका फल भोगेगा। इसी प्रकार वीतराग भगवान देव आचार्य उनके प्ररूपित धर्म देशना का अज्ञानवश या स्वार्थवश अतिक्रमण व निंदा करने का फल उसे अवश्य भोगना पड़ेगा। काम, क्रोध, मान, माया लोभ के अनंतानुबंधी अति घोर कर्म कर हिंसा, असीमित परिग्रह या भोग-विलास में जीव लिप्त होने पर उसका परिणाम भी मोहनीय-कर्मोदय के साथ-साथ उसे मिलेगा।
धन सम्पदा, शक्ति, ज्ञान सभी सामर्थ्य मिलते हुए भी किसी के कष्ट निवारण हेतु दान या परोपकार में किंचित मात्र भी त्याग न कर सके, यह अन्तराय कर्म का उदय है। इसके विपरीत सब अवसर होते हुए भी किसी को कोई लाभ प्राप्त न हो, स्वप्नवत् हो जाये, यह भी उसके इन कर्मों के उदय का कारण है। कर्मों की यह अन्तहीन श्रृंखला चलती रहती है जब तक वह स्वयं चोट खाकर जागृत न हो, या गुरु प्रेरणा से स्वाध्याय, सामायिक, परीषह जय, (कष्ट सहन) बारह अनुप्रेक्षाएँ जैसे-अनित्य, अशरण, अशुचि, अन्यत्व, संसार, लोक, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, बोधि दुर्लभ एवं मोक्ष भावनाओं न भावे, बारह तप-अनशन,उणोदरि, वृत्ति संक्षेप, रस-त्याग, प्रतिसंलीनता (एकांतवास), प्रायश्चित, विनय,